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________________ २८ अनेकान्त और आज ? वर्ष से ऊपर होने आया, मिष्टदाना वलभद्रके घर रसोई बनाती है, अकृतपुण्य चरवाहे के रूपमें चैनकी बंशी बजा रहा है ! हाँ बलभद्रने दोनों को पनाह दी है, दोनों उसकी गुलामी में बँधे हुए हैं ! लेकिन गुलामी इतनी मीठी है, कि बुरी नहीं लगती - किसीको ! बात असल में यह है, कि बलभद्रका व्यवहार मनुष्यतामय है ! और इसकी वजह है, कि वह दोनोंके कामसे बेहद खुश है ! अहाँ तक बच्चों की परवरिशका सम्बन्ध है, मिष्टदानाने कुछ उठा नहीं रखा। और यों, बच्चों की बहुत कुछ फिक चलभद्रके सिर से उतर गई है ! हल्का हो गया है - वह ! अपनेको सुखी अनुभव करता है ! घरके पास ही एक झोंपड़ी बनवादी गई है, उसी में रहती है— दुखिनी मिष्टदाना और उसका बचाचकृत !... माँकी कड़ी हिदायतके बावजूद अकूत जब बलभद्रके घर पहुँच जाता है, और वहाँ सुस्वादु-भोजन बनते तथा दूसरे बच्चोंको खाते देखता है, तो मन उसका काबू में नहीं रहता ! मुँह में पानी आ जाता है ! और वह मचल उठता है, रोने लगता है ! पर माँ बहरी या वत्र हो रहती है ! जरा भी पसीजती नहीं ! कर्तव्य और ईमान जो सामने रहता है- हरयक ! एक टुकड़ा भी वह उस खानेमेंसे अकृतको देना पाप समझती है ! वह रोता है-थलभद्रके लड़के शरारत से पेश आ हैं । चिढ़ाते हैं। बाज वक्त बात का बतंगड़ बनजाता है, और वे उसे मार तक बैठते हैं ! मिष्टदाना मनमें कम मर्माहत नहीं होती उस समय। पर, चुप रहती है ! सोचती है- 'भाग्यने जब इसे ये पदार्थ नहीं दिए, तो जर्बदस्ती क्यों करता है खानेके लिए ?' समझाती है - 'बेटा! ये बड़े लोगोंके खाने की बीजें हैं। हम-तुम इन्हें नहीं खा सकते ! - समझा ? चल...! मैं कामसे निपटकर अभी घर आती हूँ [ वर्ष ६ रसोई बनाऊँगी. तब खाना -- भला ?” अकृत आँसू पोंछ लेता है-अनधिकार चेष्टाकी सज़ा-मार- खाकर ! लौटता है-शायद यह सोचता हुआ कि - 'बढ़िया खाने बड़े लोगोंके लिये होते हैं, और मैं हैं 'छोटा' ! बहुत छोटा !! शायद जीवनमें कभी 'बड़ा' न बन सकूँगा -- ऐसा !' X x x X बलभद्र चौकेमें बैठा खीर जीम रहा था ! मिष्टदाना परोस रही थी, कि बलभद्रकी नज़र अकृतपर जा पड़ी ! बोला- 'क्यों बहिन ! अकृत दुबला-सा क्यों दिखाई देता है ? क्या मिहनत ज्यादै पड़ती है ?' मिष्टदाना चुप रही ! अधिक आग्रह देखा, तो कहना पड़ा - 'खीरके लिए बहुत दिन से तरस रहा है !" बलभद्र अवाक् ! सचमुच मिष्टदाना में उसे एक महानताकी -त्याग की छाया दिखाई दी - श्राज ! न जानें क्यों, अकृत पर भी उसकी ममता थी ही! वह बोला- 'हूँ !' और रसोईके बाद उसने जो पहला काम कया, वह यह कि चावल, दूध, घी, मिश्री मिष्टदानाको देते हुए कहा- 'जाओ, घर जाकर खीर पकाओ, और बच्चेको दो ! वाह ! नाहक नादान बच्चेका दिल दुखाया इतने दिनों !" मिष्टदाना नत मस्तक हुई। उसने पहिचाना - 'बलभद्र पूंजीपति होते हुये भी मनुष्य है।' x x X x [ ५ ] 'आज खीर बनेगी, भरपेट खाऊँगा- मैं ।'यह मधुर सत्य अकृतको आज उन्मत्त बनाये दे रहा है ! सचमुच आज वह इस वास्तविकताको भूले जा रहा है, कि वह छोटा है ! उसके छोटे-से मनकी छोटी-सी दुनिया में महोत्सव होरहे हों जैसे ! वह उल्लासमय, न जानें क्या सोचता- विचारता झोंपड़ीके द्वारपर उछल-कूद मचा रहा है ! मनमें जो खुशी हलचल मचाए हुये है ! डोल, रस्सी और घड़ा लिये मिष्टदाना बाहर भाई !
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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