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________________ किरण १] समन्तभद्रकी अद्रिक्ति अहद्भक्तथे-बनावटी या अधूरे नहीं । उनके अर्हत्सेवा न पूजयार्यस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे। का ही एकमात्र व्रत था और उमके द्वारा वे स्वयं तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिनः पुनातु चित्त दुरिताअनेभ्यः ।। अर्हन्त बननेकी पूरी कामना और भावना रखते थे। समन्तभद्रसे जब यह पूछा गया कि पूज्य-अई साथमें वे वैसा आचरण भी करते थे और इसीसे वे न्तकी पूजाके लिये भक्तपूजकको प्रारंभ करना पड़ेगा यह कहत ह कि “जनाश्रय म भगवान् विषताम और उमसे कुछ न कुछ हिंसादि सावद्यलेश-पाप अजित जिन ! अहंन्तपद मुझे प्राप्त हो ।मैं तो समझता जरूर होगा तब उनकी पूजासे पापका दूर होना तो हूँ कि समन्तभद्रको जो गौरव एवं प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है दूर रहा, पापका बंध ही ठहरेगा, ऐसी हातलमें अर्ह उसमें उनकी असाधारण अद्भक्ति भी एक खास त्पूजा न करना ही अच्छा है? समन्तभद्र इस प्रश्न कारण है। निःसन्देह उनकी यह विवेकवती भक्ति का कितना सुन्दर समाधान करते हुये कहते हैं:और श्रद्धा उनके अचिन्त्य प्रभावकी द्योतक है। पूज्यं जिन स्वार्चयतो जबस्य सावद्यलेशो बहुपुण्यराशी। इसी 'जिनस्तुतिशतक' मैं अहक्तिका माहात्म्य दोषाय नालं कणिका विषस्य न दूषिका शीतशिवाम्बुरासौ। प्रकट करते हुए वे दूसरोंको भी अहेद्भक्त बनने और उसके फलको प्राप्त करनेकी सूचना करते हैं: हे जिन ! आपकी पूजा करनेवाले भक्तजनोंको यद्यपि आरंभजन्य सावधलेश-कुछ पाप जरूर होता रुचं विभर्ति ना धीरं नाथातिस्पष्टवेदनः । है पर वह पाप इतना थोड़ा है और पूजास होनेवाली वचस्ते भजनात्सारं यथायः स्पर्शवेदिनः ।। ६.॥ पुण्यराशि इतनी विशाल है कि उसके सामने वह 'हे नाथ! आपकी भक्ति करने वाला मनुष्य थोड़ा सा पाप कुछ भी दोष-बिगाड़ पैदा नहीं करता। उत्कृष्ट कान्तिको-आत्मप्रकाशको-धारण करता है जिस प्रकार कि थोडी सी विषकी कमी कल्याणकारी और अत्यन्त स्पष्ट निर्मल ज्ञानको पाता है तथा उसके शीतजलसे भरे हुये अथाह समुद्र में डाल दी जाये तो वचन यथार्थताको लिए हुए गंभीर एवं दिव्य होजाते वह समुद्र को यिषमय नहीं बनाती। अतः यह समझ हैं। जिस प्रकार कि लोहा पारस मणिके स्पर्शस फर कि 'अहत्पूजासे सावमलेश होता है, इसलिये मोना होजाता है और उसमें कान्ति आजाती है तथा पजा, स्तति आदि नहीं करना चाहिये',ठीक नहीं है। बहुमूल्यमारभूत पदाथे समझा जाने लगता है। अर्हत्पूजासे शुभ परिणाम होकर जो महान् पुण्य__अद्भक्तिका यह कितना उच्च फल तथा माहात्म्य संचय होता है वह उस थोड़ेसे पापको तो दूर कर ही बतलाया है और लोगों के लिये उसकी कितनी उप- देता है, साथमें भक्तकी कामनाओं और भावनाओं योगिता तथा आवश्यकता प्रकट की गई है। को भी पूरी करता है और उसे अहन्त जैसे पदका यद्यपि अरहन्त भगवान भक्तकी भक्तिसे प्रसन्न अधिकारी बना देता है। क्योंकि “यो यद्गुणलब्ध्यर्थी होकर उसे कुछ देते नहीं हैं और अभक्त-निन्दककी स तं वंदमानो दृष्टः'-गुणार्थी ही गुणीकी वंदना निन्दासे अप्रसन्न होकर उसका कुछ बिगाड़ नहीं करते पूजा-स्तुति-स्मरण करता हुआ देखा गया है। और हैं। क्योंकि वे वीतराग हैं और वीतवैर है-राग और इस लिए एक-न-एक दिन वे गुण उसको अवश्य प्राप्त द्वेष दोनोंको ही उन्होंने जीत लिया है। इसलिये उन होजाते हैं जिनके लिये वह सच्चे हृदयसे सतत् में राग-द्वेष-जन्य प्रसन्नता और अप्रसन्नता संभव नहीं स्तवनादि करता है। और इस कथनसे यह भी स्पष्ट है तथापि उनका पुण्यस्मरण स्तोताके शुभ परिणामों होजाता है कि स्तुतिकी तरह पूज्यकी पूजा भी भात्ममें निमित्त होता है और उन शुभ परिणामोंसे उमका हितके लिये-श्रेयोमार्गको प्राप्त करने के लिये-एक बड़ा पापमैल जरूर ही दूर होजाता है इस बातको भी सबल निमित्त है और वह स्तुतिका ही एक प्रकार है स्वामी समन्तभद्रने बड़ेही स्पष्ट शब्दोंमें कह दिया है- अथवा भक्तिका ही एक मार्ग है।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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