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________________ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने [ २४ ] श्रीधीर-जिन-स्तोत्र कीर्त्या भुवि भासितया वीर त्वं गुणसमुत्थया भासितया । भासोडुमभाऽसितया सोम इव व्योम्नि कुन्दशोभाऽऽसितया ॥१॥ 'हे वीर निन ! श्रा। उस निर्मलकीर्तिसे- ख्याति अथवा दिव्यवाणीसे-जो (प्रात्म-शगर-गत) गुगान्य समुद्भत हे पृथ्वीपर उसी प्रकार शोभाको प्राम हुए हैं जिस प्रकार कि चन्द्रमा अाकाशमें नक्षत्र-समा-स्थित उमदमसे शोभता है जो कि कुन्द-पुप्पोकी शोभाक समान सब अोरसे धवल है।' तव जिन शासनविभवो जर्यात कलायपि गुणानुशासनविभवः । दोषकशाऽसनविभवः स्तुवन्ति चैनं प्रभावशासनविभवः ॥२॥ 'हे वार जिन ! अारका शासन-माहात्म्य-अापके प्रवचनका यथावस्थित पदार्थोके प्रतिपादन-स्वरू। गौरवकलिकाल में भी जाको प्राप्त है-सर्वोत्कृष्टरूपसे वर्त रहा है-, उसके प्रभावसे गुणोमं अनुशासन-प्रान शियजनोंका भा निनष्ट हुअा है-संसार परिभ्रमा सदाके लिए छूटा है। इतना ही नहीं, किन्तु जी दोषम्य चाबुकोंका निराकरण करने में समर्थ है-चाबुकोकी नरद पीडाकारी काम-क्रोधादि दोषों को अपने नाम फटकने नहीं देते और अपने ज्ञानादि ने जमे जिन्होंने श्रासन-विभोको-लोक के प्रसिद्ध नायको (हरिहगदिका) की-निस्तेज किया है वे-गए. देवादि महात्माभी प्रारके इस शासन-माहात्म्यकी स्तुति करते हैं। अनवद्यः स्याद्वादम्तव दृष्टिाविरोधतः स्याद्वादः। इतरोन स्याद्वादो सद्वितविरोधान्मुनीश्वराऽस्थाद्वादः ॥३॥ 'हे मुनिनाथ ! 'स्यात्' शब्द-परस्सर कथनको लिये हुए आपका जी स्यावाद है-अनेकान्तात्मक प्रवचन हैवह निर्दोष है, क्योंकि हट-प्रत्यक्ष-और इट-भागमादिक प्रमाणोंके साथ 3मका कोई निगेध नहीं है । मग 'स्यान्' शब्द-पूर्वक कथनसे रहित जो सर्वथा एकान्तवाद है वह निर्दोष -वचन नहीं है; क्यों कि दृष्ट और इ2 दोनों के विरोधको लिये हुए है-प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे बाधित ही नहीं, किन्तु अपने इष्ट-अभिमतको भी बाधा पहुँचाना है और उसे कि.मी तरह भी सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकता।' त्वमसि सुरासुरमहितोप्रन्थिक सत्त्वाऽऽशयप्रणामाऽहितः। लोकत्रयपरमहितोऽनावरणज्योतिरुज्ज्वलद्धामहितः ॥४॥ "(हे वीर जिन) श्राप सुरों तथा असुगेने पूजित है, किन्तु ग्रन्थिकसत्वोके-मिथ्यात्वादि-परिग्रहसे युक्त प्राणियों के -(भक्त) हृदयसे प्राप्त होने वाले प्रणामसे पूजिन नहीं हैं-भले ही वे ऊपरी प्रणामादिसे पूजा करें, वास्तव में तो सम्यग्दृष्टियोंके ही पार पूजा-पात्र हैं। (किसी किसीके द्वारा पूजित न होने पर भी) श्रार तानो लोकके प्राणियोंके लिए परमहितरूप है-गग-द्वेषादि-हिसाभावोंसे पूर्णतया रहित होने के कारण किसीके भी अहितकारी नहीं, इतना ही नहीं, किन्तु अपने अादर्शसे सभी भधिक जनोंके श्रात्म-विकाममें सहायक है-श्रावरए हित ज्योतिको लिये हुए है-केवल ज्ञानके धारक है--और उज्ज्वलधामको-मुक्तिस्थानको-प्रास हुए हैं अथवा अनावग्गा ज्योतिबोसे--केवल ज्ञान के प्रकाशको लिये हुए मुक्तजीवोंसे-जो स्थान प्रकाशमान है उसको-सिद्धिशिलाको-प्राम हुए हैं।'
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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