________________
* ॐ अहम् *
PREMIES
% 3
ESED नीतिदिरोधष्यसीलोकव्यवहारवर्तक-सम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥
वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा जिला सहारनपुर वर्ष ६, किरण
अगस्त १९४३ भाद्रपद, वीरनिर्माण मं० २४६६, विक्रम सं. २००० समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
[ १४ ]
श्रीभनन्तजित्-जिन-स्तोत्र अनन्तदोषाशय-विग्रहो ग्रहो विषङ्गवान्मोहमयश्चिरं हृदि ।
यतो जितस्तववरचौ प्रसीदता स्वयानोऽभूर्भगवाननन्तजित् ॥१॥ 'जिसका शरीर अनन्त दोषोंका-गग-ट्रेप-कामक्रोधादि अगणित विकागेका-आधारभूत है (और इसी लिये अनन्त संसार-परिभ्रमणका कारण है) ऐसा मोहमयी ग्रह-पिशाच, जो निरकालसे हृदयमें चिपटा हुआ था-श्रात्माके साथ सम्बद्ध होकर उस पर अपना अातंक जमाए हुए था--- वह चूँकि तत्त्वश्रद्धामें प्रसन्नता धारण करने वाले आपके द्वारा पराजित-निर्मूलित-किया गया है इस लिये श्राप भगवान 'अनन्तजित हुए हैंश्रापकी 'अनन्तजित्' यह संशा मार्थक है।'
कषायनाम्नां विषतां प्रमाधिनामशेषयन्नाम भवान शेषवित ।
विशोषणं मन्मथ-दर्मदाऽऽमयं समाधि-भैषज्य-गुणव्येलीनयत् ॥२॥ (हे भगवान्) आप कषाय नामके पीडनशील शत्रुओंका (हृदयमें) नाम निःशेष करते हुए.-उनका श्रात्मासे पूर्णत: सम्बन्ध विच्छेद करते हुए-अशेपवित्-सर्वज्ञ-हुए हैं। और आपने कामदेवके दुरभिमान रूप अातंकको, जो कि विशेष रूपसे शोषक-संतापक है, समाधिरूप-प्रशस्त ध्यानात्मक-औषधके गुणोंसे विलीन किया है-- विनाशित किया है।'