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________________ ३५६ अनेकान्त [वर्ष ६ ताजे म्बिले हुए फूलोंकी उत्तेजक, आनन्द-दायक महागज मौन ! सुगन्धिसे परिप्लावित विलास-भूमिमें. अनक सुंद- नारी-प्रेमको उनके ठेस लग रही थी-'उपास्य' रियोंके मधु-कटाक्ष और हृदय-बेधक वचनों के बीच, जो ऋद्ध-सा, मलिन-सा होता जा रहा था ! उपासक महाराज सुरत अपनी प्राणेश्वरी महागनी मतीके प्रसन्न कैसे रहता? चंद्राकार माथे पर तिलक खींच रहे थे ! सौन्दयेकी कुछ सोचा! और वे चलने-चलनेको हुए।".... निरख-परख, देख-भाल, सहयास और इन्द्रिय-सुग्वों कि सतीने फिर एक बाण छोड़ा-'जा तो रहे हैं, को तृप्त करनेकी कोशिश यही सब तो महाराजका जाना जो ज़रूरी है। पर, लौटिएगा-कब ? क्या कार्यक्रम हैं ! वे प्रेम-पुजारी हैं, व्यसन ही उनका प्रतीक्षा कीजाय ?? यह है!" ___ 'चित्त मत बिगाड़ो-सुन्दरी ! मैं अभी, तुम्हारा बसन्तकी मस्तानी वायु ! तिलक सूखने भी न पाएगा, कि पाया जाता हूँ ! मुझे कोयलकी कूक !! जो तुम्हारे चन्द्राननको देखे बिना चैन नहीं मिलता!' समृद्धिशालीका केलि-भवन !!! --और बरौर प्रत्युत्तर सुने, महागज विलासतरुण-सौन्दर्यका प्राधान्य ! भूमिसे बाहर हो गए। हो सकता है, उन्होंने क्रमदन स्वर्गेमें इससे अधिक कुछ होगा, पता नहीं !... उत्तर सुननेसे अपनेको बचाया हो, उत्तर जो बद महाराजकी सारी शक्तियाँ उस माथेके छोटेम जायका-कडुवा-मिलेगा, इसका अन्दाज़ा लगा चुके तिलकम केन्द्रित हो रही थीं ! वह जो रूपको आर थे-पहले ही !... भी लुभावक बनानेकी सामध्ये रखता था ! कभी _ 'यह निगदर ?-यह करारा अपमान ?'-सतीके बनाते, कभी पोंछ डालते-यह जो चाह रहे थे, कि खौलते-हृदयसे प्रकट हुश्रा! अधिक-से-अधिक सुन्दर, कलापूर्ण, आकर्षक बन जाय! पर, महाराज वहाँ नहीं थे। वे रानियाँ, संबिकाएँ कि महसा प्रहरीने प्रवेश कर निवेदन किया- वहाँ शेष थीं, जिनका मूल-विषयसे कुछ सम्बन्ध 'दो बन्दनीय दिगम्बर-माधुओंका गज-महलमें शुभा- नहीं था! गमन हुश्रा है, महाराज !, मुँह कुचली सर्पिणीकी तरह सती क्रोधमें भर महाराजकी चैतन्यता लौटी। मुँहसे निकला- रही थी! सुनने वाला कोई है या नहीं, इसकी उसे 'धन्यभाग्य !' पर्वाह नहीं थी। दर्वाजेकी ओर आरक्त आँखोंसे प्रहरी चला गया। घूरती हुई वह आप-ही-आप बड़बड़ाने लगी-तृणमहाराज उठ खड़े हुए। कुछ कहन ही जा रहे थे, हीन धरती पर पड़े अंगारकी तरह निस्सारकि सतीने टोका--'क्या तुम्हारे बिना वे भूखे लौट 'नहीं जानती थी, कि तुम्हारा प्रेम, प्रेम नहीं; जाँयगे? ऐसा कोई बड़ा काम तो यह है नहीं, जो दम्भ है, धोखा है! मुझे विश्वास था कि तुम मुझे "तुम्हें जाना ही चाहिए।' प्रेमकी देवी मान कर, मेरा आदर करते हो, पूजते बड़ी भोली हो तुम !'-महागजने वहस करना हो; प्यार करते हो! ले कन आज जान सकी, कि व्यर्थ-सा समझते हुए, कहा-'साधु-संवामें रस लेनेस तुमने मुझे खिलौना समझा, सिर्फ खिलौना ! वह बड़ा काम दुनिया में मनुष्यके लिए और क्या हो खिलौना जिमका एक समझदारकी नज़रोंमें कोई बड़ा सकता है-रानी ? सोचो तो जरा मूल्य नहीं। जब चाहा, जब तक चाहा मनोरञ्जन . महाराजकी सरल-मुलायम वाणीने सतीके भीतर किया, नहीं तो दूर ! ' और भी तीखापन ला दिया, बोली-- ऐसी बातें क्रोधसं थर-थर-विवेकसे पिछड़ी, पापसे पूर्ण सोचने-विचारनेके लिए आप कुछ कम थोड़े ही हैं!' सुन्दरी-सती कुछ क्षण मौन रही ! मस्तिष्कमें जो
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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