SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ केवलज्ञानकी विषय-मर्यादा . . २७१ . बारहवं तक है । तेरहवें गुणस्थानमें संशोपन, असशीपन, चाचा, वालिद बोलते है, माताको बहू, भाभी, चाची, दोनोंका व्यपदेश नहीं है । सत्य, अनुभय दो मनोयोगोंको श्रध्वा कहते हैं, उन कलिन्त नानो या पदवियोंको कौन उपयोगों को उपयोगसे बिलकुल मत मिलाश्रो । कहाँ संभाले? तुम ही सोचो। यहां सहारनपुर में सब अपनी माँको श्राकार्षणशक्ति और कहाँ चेनना ? किधर जारहे हो। तब मामी करते हैं क्या भगवान् भी माताको भाभी समझले, सोयह स्पष्ट निर्णय हो जाता है कि (3) उसे यों करना चाहिये क्या बातें करते हो? था कि प्राशा देनेके पहिले प्राशा मानना सीख लेना । (२)जो देखो पदार्य अनन्त है। उनपर कल्पक नाना व्यक्तियों काम तुमको आज करना उसे कलपर मत छोड़ो (३) अच्छी की ओरसे रद्दी, पोले, भारोपे गये, कल्पिन धर्म अनन्तानन्त वृष्टि होगी तो बढ़िया सुभिक्ष होगा । (४) यदि वह स्वयं है। और परस्र चालिनीन्यायसे होगये अनन्तानन्त विक ल्पोंका पेट तो बहुत बड़ा है। नैगम नय भी कहाँ तक 'प्रागरे जाता तो देवदत्त को अवश्य लिवा लाता। (५) अमुक गाड़ी १२ बजकर ५ मिनटपर छूट जाती तो ॥ संकल्प करती फिरेगी। पूरे गांव या नगरकी ब्योनार कराने वाले सेठ तो हैं। क्या कोई राजा महाराजा अपने इन बजे दिल्ली पहुँच जाती । यो मद्रास टाईम, बम्बई टाईम, ग्रामस्थ पशु. पक्षी, कीट, पतंग सबका जीवनबार करने लिनलिथगो टाइम लगाते बैठना । (६) अमुक रोगीको बाला देला क्या? एक वार केवल मनुष्योंको जमा देने फलानी औषधि मिल जायगी तब तो वह बच जायगा से "सबका भोजन करा देने वाला" यह पदवी मिल जाती है। अन्यथा मर भी सकता है। ये पोच मीमाँमायें श्रुतज्ञानियों अस्तु इस अनन्तपनका भी इतना भीषण भय'नहीं क्यों के विकल्प है। श्री सूत्रकार महोदयने "श्रुतमनिन्द्रियस्य कि केवलशानके उत्कट अनन्तानन्त संख्या वाले अविभाग विकल्पः श्रुतं" "आशापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम् प्रतिच्छेदोंके सामने यह प्रानन्त्य विचारा बहुत छोटा है वीचारोऽर्थजनयोगसंक्रान्तिः" "विपरीतं मनाशस्य"। नगप्यो।हाँ मात्र केवलशानाके विचारक या विकासको इन सूत्रों द्वारा सभी धारयायें श्रुतशानियोंके सिर मढ़ दी हैं। जानेकां प्रसनहीं आना चाहिये। श्री उमास्वामी महाराज जो कह रहे हैं, उसीको मैं दूसरी बात यह है कि प्रवेशिका छात्रगण एकबार बखान रहा हूँ। एक अक्षर भी कोई नई बात नहीं है। यवनोंने हिन्दुओंसे लड़ते समय सामने गायें खड़ी करली थीं धर्म्यध्यान - शुक्लध्यानोंके लम्बे स्मृतिसमन्वाहार या प्राप इस जघन्य प्रक्रियासे क्या ठोस वस्तुभूत केवलशानके पृथक्त्ववितर्कविचार ये सब वितकणायें भले ही कर्मक्षय सम्पूर्ण अविभाग प्रतिच्छेदों का फलोपयोग लेना चाहते का कारण है किन्तु श्रुतज्ञानियोंके ही पास है केवली इनसे है, यह तो कभी न होगा। सर्वथा अकूते हैं। विरक्त है। सर्वश भगवान् भी विचारे शास्त्रिजन ! वे तो "अविभागस्त पमाणं जहाही बो भूत, वर्तमान, भविष्य, कालमें वस्तुभून पदार्थ हैं उन्हीं पएसाणं" (गोम्टसार कर्मकरह) अनुसार बना लिए गये को तो जानेंगे इनमेंसे एक परमाणु या तदंशमात्र भी नहीं कल्पित अविभागी अंश है। उनका बहुभाग ठलुमा पड़ा कुटना चाहिये। किन्तु यदि किसीने मनुष्य घिोड़े के सींग है। कामतत्वं त्वमवैत्रिलोकीस्वामीति संख्यानियते मान राखे हैं या स्त्र के पंख लगें समझ रखें हैं। एक रमीषा बोधाधिपत्यं प्रतिना भविष्यं स्तेन्येऽपिचेद् व्याप्यस्यदम्लड़की अपनी गुड़ियाको पाँच सौ रुपयेसे मी अधिक मूल्प- नपीद" (विषारहार) तीन लोक तीन कालसे कोई अधिक वान जान रही है, तो कृपानिधान इस गपाड़वानीसे तो तय होते तो केवलशान उनको भी जानता किन्तु कोई भगवानको बचाये रक्खो,गल्ली, आधीगल्नी, सवालको करने हैही नहीं। यो केवलशानका अधिक भागबेकार है और वाले छात्रके मिथ्याविचारोपर यूनिवर्सिटीके परीक्षकको, पर थोथा, सापेक्ष, संकल्पिक शेय भी केवलज्ञानसे अमल तदनुसार हो जानेके लिये वाध्य न करो। सच्चा निरीक्षक हो रहा है। क्वचित् घन व्यर्थ पड़ा अन्यत्र धनामिलावुक परमार्थ स्थिविपर पहुँचता है। कल्पक कवियो अथवा ग्रीव दरिद्र अस्थामें रो रहे है। कहीं बनमें औषधियाँ कहानी लेखको, उपन्यासकारोंकी गल्पोंपर नहीं। गल सड़कर नष्ट हो रही है। पर उन दवाइयोंके बिना अनेक देशीय पुत्र अपने पिताको दादा, दर, भाई, अनेक रोगी अकाल मृत्युसे मर रहे है।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy