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________________ अनेकान्त [बर्ष६. इम शंका-समाधान दिगम्बर-मान्यतामुमार केवलशान होनेके उल्लेव जैनसूत्रों में पाये जाते हैं। को उत्पत्तिके दिन वारभगवानकी देशनाके न होने और ६५ श्राशा है शासन-प्रभावनाके इस सत्कार्यमें दिगम्बदिन तक उसके बन्द रहने के कारणका भली प्रकार सष्टी- रोंको अपने श्वेताम्बर और स्थानकवासी भाइयोका करण हो जाता है। अनेक प्रकारसे सगावपूर्वक सहयोग प्राप्त होगा। इसी भीयनिवृषभाचार्यके 'तिलोयपण्णी ' नामक ग्रन्थसे भी, आशाको लेकर 'आगामी वीरशासन-अयम्नी - महोत्सव जिसकी रचना देवद्धिंगणिके श्वेताम्बरीय बागम प्रन्यो और की योजना के प्रस्तावमें उक्त दोनों सम्प्रदायोंके प्रमुख व्यअावश्यक नियुक्ति आदिसे पहले हुई है, यह स्पष्ट जाना क्तियाक नाम भी साथ रक्खे गये है। जाता है कि वीर भगवानके शासनतीर्थकी उत्पत्ति पंच- अब मैं इतना और बतला देना चाहता हूँ कि बारशैलपुर (राजगृह) के विपुलाचल पर्वतपर भावण-कृष्ण- शासनको प्रवर्तित हुए गत श्रावणकृष्णा-प्रतिपदाको २vet प्रतिपदाको हुई जैसा कि नीचेके कुछ वाक्याँसे प्रकट है- वर्ष हो चुके हैं और अब यह २५०० वाँ वर्ष चल रहा है, सुर-खेयरमणहरणे गुणाणामे पंचसेलण्यरम्मि ! जो आषाढी पूर्णिमाको पूरा होगा । हमीसे वीरशासनका विउलम्मि पव्वदषरे वीरजिया अस्थकतारो॥६५ अघद्वयसहस्राब्दि-महोत्सव उस राजगहमें ही म वासस्स पढममासे सावणणाभिम बहुलपडिवाए। योजना की गई है जो वीरशासनके प्रवर्तित होनेका श्राद्यअभिजीणक्खत्तम्मि यसप्पत्ती धम्मतित्थस्स ॥६॥ स्थान अथवा मुख्य स्थान है। अत: इसके लिये सभीका ऐसी स्थिति में श्वेताम्बरोंकी मान्यताका उक्ल द्वितीय सहयोग बांछनीय है-सभीको मिलकर उत्सवको हर प्रकार बनीय समक्सरण-जैसा थोड़ा सा मतभेद राजगृहमें अागामी से सफल बनाना चाहिये। इस अवसर पर वीरशासनके प्रेमियोका यह खास कर्तभावण-कृष्ण-प्रतिपदादिको होनेवाले वीरशासन-जयन्ती व्य है कि वे शासनकी महत्ताका विचारकर उसके प्रमुसार महोत्सवमें उनके सहयोग देने और सम्मिलित होनेके लिये काई बाधक नहीं हो सकता-वासकर ऐसी हालतमें जबकि अपने श्राचार-विचारको स्थिर करें और लोकमें वीरशासन वे जान रहे हैं कि जिस श्रावण-कृष्ण-प्रतिपदाको दिगम्बर के प्रचारका-महावीर सन्देशको सर्वत्र फैलानेका-भरसक उद्योग करें अथवा जो लोग शासन-प्रचारके कार्य में लगे आगम राजगहमें वीर भगवानके समवसरणका होना बतला हो उन्हें मतमैदकी साधारण बातोपर न जाकर अपना सचा रहे हैं। उसी श्रावण-कृष्ण-प्रतिपदाको श्वेताम्बर श्रागम भी सहयोग एवं साहाय्य प्रदान करने में कोईवात उठान रक्सवे. वहाँ वीरपभुके समवसरणका अस्तित्व स्वीकार कर रहे हैं, इतना ही नहीं किन्तु वहाँ केवलोत्पत्तिके अनन्तर होनेवाले जिससे वीरशासनका प्रसार होकर लोकमैं सुख-शान्ति-मूलक उस सारेचातुर्मास्यमें समवसरणका रहना प्रकट कर रहे कल्याणकी अभिवृद्धि हो सके। इसके अलावा यह भी मान रहे है कि 'राजगृह नगर वीरसेवामन्दिर, सरसावा महावीर के उपदेश और वर्षावासके केन्द्रों में सबसे बड़ा और देखो, मुनिकल्याणविजयक्त ‘भमय भगवान महावीर' प्रमुख केन्द्र था और उसमें दोसौसे अधिकवार समवसरण .२४,२५ सूचना स्थानाभावके कारण इस किरण में 'जैनधर्मपर भजैन विद्वान्' शीर्षक नहीं दिया जा सका, दूसरे भी कुछ लेख नहीं दिये जा सके, पुस्तकोंकी समालोचना भी नहीं जा सकी। अगली किरणमें उनके देनेका जरूर यत्न किया जायगा। -व्यवस्थापक
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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