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________________ ३५४ अनेकान्त [वर्ष ६ हाल सुनाने बैठते हैं जिसको पाठकगण नहीं चाहता है। तंत्रके अनध्ययन-पूर्वक ही कविको लिखनेका प्रयत्न जिस समय कथानककी महत्ता-श्रेष्ठता कवि अपने मुहसे करनेसे उसकी कृति नाप-तौलमें कम होती है। हर समय कहता तब समझना कि उसमेंके पात्रोंको अपनी कृतिसे यही सोचना चाहिये कि अपनी कृति अनोखी रहे। अपनी श्रेष्ठता दिग्दर्शित करनी नहीं पाती है। कान्यकी रचना ऐसी चाहिये कि उसमें हरएक लाईन जैनी कवियोंमे मेरी प्रार्थना है कि वे अभ्यास-पूर्वक अपनी योग्यता (Value) कायम रखे। 'मेरी-भावना'का लिखनेका प्रयत्न करें। कहानियोंको बतलाना यह खण्डकाव्य हरएक शब्द भरनी निजकी योग्यता (Belevalue) नहीं हो सकता है मेरी तो यह हार्दिक भावना है कि इस प्रकारकी कथाएँ पद्यरूपमें परिणत करके उनकी एक खंडकाव्यों में केवल वीररस 'स्टंट' न होने देनेका कवि किताब छपे और वह बालकोंके लिए ही खास कर होवे । को जरूर प्रयत्न करना चाहिये। इस लिए कवियोंको बालकोंके कोमल हृदय पर गीत ही प्रभाव कर सकते हैंचाहिये कि वे Running Literature न लिखते गद्यात्मक रचना नहीं। इस लिए ऐसी पद्य-कथाओंकी हुए Self-value रखने वाली रचनाएँ करें। बालवालयमें कमी है। उसकी पूर्ति होवे वह सुदिन ! चाँदनीके चार दिन (श्री भगवत्' जैन) पाप बुरा है ! नहीं करना चाहिए, इसलिए कि कांश जगत इसी सिद्धान्तको मानने वाला है ! और उससे दुःख मिलता है ! पर, हम करते हैं, और तुर्ग विश्वास कीजिए-इसमें वे आस्तिक भी शामिल हैं यह कि बेहिचक ! अब सवाल उठता है, कि दुम्ब जो पुर्नजन्मके अस्तित्वसे ना-मुकर नहीं है! पाते हुए भी हम उसे करते क्यों है ? भयभीत क्यों इतना सब कहनेसे, मेग खयाल है, दुख भोगते नहीं होते उससे ?"हाँ! दुखसे घबराते हैं, भयभीत भी हम पाप क्यों करते हैं ? इसका समाधान हो जाता होते हैं। लेकिन मूल चीजतो यह नहीं है न ? यह है ! लेकिन पाप बुरा है ! बुग है वह हर हालनमें हर दुसरी बात है! पहलूमे बुरा है-इम ध्रुव-सत्यमें अन्तर नहीं पड़ता ! और इस सबका उत्तर सम्भवतः यही हो सकता फिर परिणाम चाहे आज भोगना पड़े, चाहे कल ! है, कि हमको नतीजा--पापका-हाथोंहाथ नहीं भोगना तो पड़ता ही है न ? और तब यह मूर्खताके मिलता! और यों, हम परिणामकी ओरसे बेफिक अतिरिक्त और कुछ नहीं ठहरती, कि दुखके कारणकी रहते हैं ! पाप करते चले जाते हैं-निडर होकर ओरसे आँख मीच कर, दुम्बकी कठोरताके लिए यानी पाप आज करते हैं, दुव बादको मिलता है। रोया-चिल्लाया जाय ! परिणामके लिए यह नहीं कहा तब तक पापकी बातको भूल जाते हैं। दुखको लेकर जा सकता, कि कब सामने आए ! नियमकी पावन्दी रोते, चीखते-चिल्लाते हैं। जैसे अकारण ही किसीने उस पर लागू नहीं है! एक अर्से के लिए टलना नालाद दिया हो! और बादकी-मागेकी-बात पर मुमकिन नहीं है, उसी तरह हाथोंहाथ भी नतीजा विश्वास भी कितनोंको है ? 'हाल तो मौजमें गुजर नजरके आगे आ खड़ा हो मकता है ! जानी चाहिए, आगेकी आगे देखी जायगी!'-अधि- नीचे वर्णनमें ऐसी ही घटना श्राप देख पाएँगे,
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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