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________________ किरण १०-११] स्वाधीनताकी दिव्य ज्योति ३५३ प्रतीत होता है। उसके स्थान पर 'छिन-भरके-लिए' यह रूपसे प्रतीत होता है किन्तु वे चाहते कि जल्द बँधे भाई वाक्य-प्रयोग ठीक ऊँचता था। की प्ररथी" यह वाक्य बाहुबलीके मुँहमें न गालते तो खण्डकाव्यमें रिया हुमा दूतका भाव , असभ्यताका उतनी ही उनकी श्रेष्ठता थी। एक साधारण व्यक्ति अपदिग्दर्शक है। चक्रीशके भाईको एक साधारण दूत इतने मानित शत्रुको जितना नहीं कहेगा उतना कवितीने भरतजी कड़े शब्दों में उपदेशित नहीं कर सकता। 'भृत्य सिधारा' को सहज ही सुनादिया है। तो भी कविजीने प्रस्तावना और भृत्य यह शब्द केवल परिचर्या-सेवा आदि करने वालोंके उपसंहार बहुत अच्छा किया है। किन्तु पीछेसे उसको लिए उपयुक्त किया जाता है ऐसा मेरा खयाल है। भरतके और भी २०-२५ चरणोंकी पुच्छ जोड देनेसे भादमी मनमें यह कल्पना भी नहीं होगी कि यह मैं अपने भाईको पुच्छ होने पर जिस प्रकार दिखता था उसी प्रकार प्राज्ञा कर रहा है। फिर भी 'प्राज्ञाका कुठारा' यह वाक्य- दीखने लगा है। प्रयोग उपयोजित है। भृग्यके गुणोंका वर्णन कविने ही इस खण्डकाव्यमें अनेक दोष हैं तो भी वह उनके नये किस प्रकार किया है यह देखने सरीखा है उपक्रमके मानसे देखा जाय तो बहुत ही अच्छा जंचेगा। "वाचाल था, विद्वान, चतुर था प्रचण्ड था। ऐतिहासिक खण्डकाव्यों में पूरी तरहसे ऐतिहासिकता रहना इस चरणके दो विशेष्य बड़े ही चमत्कृति-जन्य हैं। आवश्यक है। भ. बाहुबलीजीके दिल की बात सब जगत भृत्य प्रचंड या याने क्या ? और वाचाल यह शब्त-प्रयोग में कैसे फैल गई? इसका उत्तर काग्यसे प्रतीत नहीं उपहास-जनक। उसी-प्रकार उसका भाषण भी शिष्ट- होता है। सम्मत नहीं हो सकताहै कविजीने अपनी पूरी शक्तिको लगा कर यह काव्य "या रखते हो कुछ दम तो फिर मैदान में प्रावो" लिखा है। केवल उसमें दोष-दृष्टिसे मैंने निरीक्षण या याने भरतके पहले उनके भृत्य ही बाहुबलीको अपने परीक्षण नहीं किया। जैनी कवि इस खंडकाव्यकी ओर बाहुबलसे डराने लगे। यदि इस प्रकारकी बात भरतके बढ़ें । घर घरमें जिन खंड.व्योंको भक्तामर-सरीखा मुँहसे निकली हो तो भी इतने पुण्यवान्-महारमाके मुखसे स्थान मिलेगा ऐसे खंड-काव्य जैनी माहित्य में पैदा होवें, कविका इतने शब्द कहनेको लगाना यह सब महिमा कवि- यही केवल एक भावना है। राजके सामर्यकी है! श्री मुख्तारजी साहबकी 'मेरी भावना' जैन समाजके किन्तु वही बाहुबलीके मुखसे निकले हुवे शब्द कितने हृदय में घर करके रह गई, उसी प्रकार यह खंडकाव्य मी गहरे है-- जनताका हृदय जरूर जरूर आकर्षित करेगा। कषिजीमे "सेबककी नहीं जैसी कि स्वामीकी जिन्दगी। पहला कदम रखा है। इस लिए उन्हें मैं-मैं ही क्या क्या चीज़ दुनियामें गुलामीकी जिन्दगी ! समाज धन्य कहेगा। इसी प्रकार एक वाक्य-प्रकार मुझे बड़ा ही रोचक श्री भगवतजीकी रचनाएँ समाज पसंद करता जारहा जगा--चेहरा बिगड़ गया' सचमुच में बाहुलीजीके इन है। कुछ वर्षके उपरान्त जैनी साहित्यिकोंमें ही नहीं वरन् शनोंसे उसके मुँहमें पानी न रहा होगा। हिंदी साहित्यिकों में 'भगवत्जी अच्छा स्थान प्राप्त करेंगे। इतने स्वाधीन विचारसे बोलने वाला राहुबली भागे यह खडकाब्य पढ़ते समय प्रागे भागे रुचि तो बढ़ती चल कर कहता है "मैं तुच्छ-सा राजा हूँ" "बलिदानका ही जाती है। किन्तु खंडकाव्य हृदयोंको हिला नहीं सकता बल है, अगर लड़नेका दम नहीं" । या पदनेके बाद दिलपर कुछ भी असर नहीं करता है। किन्तु हम खंडकाव्यसे बहुबलोजीकी ही श्रेष्ठता प्रतीत अनेकतर खंडकाम्य हृदयकी पकड जमा लेते हैं । अमेक होती है, भरतजीकी नहीं। वर्षों बाद भी कुखचरण हृदय-सागरपर हिलोरें मारते हैं। बाहुबलीजीकी भूमिका कविजीने अच्छे रूपमें दर्शायी कथानक गूयते समय कवियोंको चाहिये कि कथानकहै। बसाई जीतने पर भी उनका वैराग्य-भाव-समुचित सूत्रमागे बनता रहे। कभी कभी कविजी ही अपने हृदयका
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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