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________________ वीर-शासनकी उत्पत्तिका समय और स्थान [सम्पादकीय जैनियोंके अन्तिम तीर्थंकर श्री वीरभगवानके शासन- छ?णुक्कुडुयस्स उ उपरणं केवलं गाणं ॥ नीर्थको उत्पन्न हुए श्राज कितना ममय होगया, किस शुभ -श्रावश्यकनियुक्ति ५२६ पृ० २२७ वेलामें अथवा पुण्य-तिथिको उसका जन्म हुआ और किस जहाँ केवल ज्ञान उत्पन्न होता है वहाँ उसकी उत्पत्ति के स्थान पर वह सर्वप्रथम प्रवर्तित किया गया, ये मब बातें अनन्नर, देवनागग आते है, भूत-भविष्यत् वर्तमानरू। ही भाजके मेरे इस लेम्वका विषय हैं, जिन्हें भानी वीर- मकल चगऽचरके ज्ञाता केवलज्ञानी जिनेन्द्रकी पूजा करते शासन-जयन्ती-महोत्सबके लिये जान लेना सभीके लिये हैं-महिमा करते हैं और उनके उपदेशके लिये शकाज्ञासे श्रावश्यक है। इस सम्बन्धमें अब तक जो गवेषणाएँ समवसरगा-मभाकी रचना करते हैं+, ऐमी माधारण जैन (Researches) हुई है उनका मार इस प्रकार है:- मान्यता है । इस मान्यताके अनुसार जुभकाके पास ऋजु- किसी भी जैन तीर्थकरका शामननीर्थ केवलज्ञानके कूला नदीके किनारे वैशाख सुदि दशमीको देवतागणने उत्पन्न होनेसे पहले प्रवर्तित नहीं होता तीर्थप्रवत्तिक पर्व में आकर वीर भगगनकी पूजा की, महिमा की और उनके केवलज्ञानकी उत्पत्तिका होना आवश्यक है। वीरभगवान उपदेशके लिये तीर्थकी प्रवृत्ति के निमित्त-समवसरण - को उस केवलज्ञानज्योतिकी संप्राप्ति वैशाख सुदि दशमीको सभाकी सृष्टिं भी की, यह स्वतः फलित हो जाता है। परन्तु अपराहके समय उस वक्त हुई थी जबकि श्राप जुम्भिका हम प्रथम ममवमाणमें वीरभगवानका शासनतीर्थ प्रवर्तिन प्रामक बाहिर, ऋजुकुलानदीके किनारे, शालवृक्षक नीच, नहीं हुश्रा, यह बात श्वेताम्बर सम्प्रदायको भी मान्य है, एक शिलापर षष्ठापवाससे युक्त हुए क्षरक-श्रेणीपर श्रारूद जैसा कि उनके निम्न वाक्योंसे प्रकट हैथे-आपने शुक्लध्यान लगा रखा था। जैसा कि नीचे तित्थं चाउव्वएणो संघो सो पढमए समोसरणे । लिखे वाक्योंसे प्रकट है उम्पएणो उ जिणाणं, वीरजिणिंदस्स बीयम्मि ॥ उजुकूलणदीतीरे जंभियगामे वहिं सिलावट्टे । -आवश्यकनियुक्ति, २६५ पृ० १४० छोणादातो अवररहे पायछायाए । आधे समवसरणे सर्वेषामर्हतामिह । वसाहजोण्ड-पक्खे दसमीए म्यवगढिमारुद्धो । उत्पन्नं तीर्थमन्त्यस्य जिनेन्द्रस्य द्वितीयके ।। १७-३२ हंतूण घाइकम्मं केवलणाणं समावण्णो । -लोकप्रकाश, खं० ३ -धवल-जयधवलमें उद्धृत प्राचीन गाथाएँ। इनमें श्री बीर-जिनेन्द्र के तीर्थको द्वितीय समवसरणम ऋजुकूलायास्तीरे शालद्रमसंश्रिते शिलापट्टे । उत्पन्न हुश्रा बतलाया है, जबकि शेष सभी जैन तीर्थंकरों अपराएहे पष्टेणास्थितस्य स्खलु जम्भकाग्रामे ॥११॥ का तीर्थ प्रथम समवसरण में उत्पन्न हुआ है। श्वेताम्बरीय आगमों में इस प्रथम समवसरणमें तीर्थोत्पत्ति के न होनेकी ज्ञपकण्यारूढस्योत्पन्नं केवलज्ञानम् ॥ १२॥ + ताहे सकाणाए जिणाण सयलाण समवसरणाणि । -श्रीपूज्यपाद-सिद्धभक्तिः विक्किरियाए धनदो विरएदि विचित्तस्वेहिं ।। बइसाहसुद्धदसमी-माघा-रिक्खम्हि वीरगाहस्स। -तिलोयप.४-७१० रिजुकूलएदीतीरे अवरोहे केवलं णाणं ॥ . केवलस्य प्रभावेण सहसा चलितासनाः । -तिलोयपएणसी ४-७०१ श्रागत्य महिमा चक्रुस्तस्य सर्वे सुराऽसुराः ।। भिय-बहि उजुवालिय तीर चियावत्त सामसालअहे। -जिनसेन-हरिवंशपु०२-६.
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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