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________________ पण्डितजीके दो पत्र [उस्मानाबाद (हैदराबाद) के श्री नेमचन्द बालचन्दजी गान्धीने मुख्तार साइबकी विख्यात पुस्तिका 'मेरीभावना' पर कुछ गरिभाषिक शंकाएं की थी। उनके उत्तर में मुख्तार महोदयने जो पत्र उन्हें लिखे, वे उन्होंने कृपाकर इम अंकमें प्रकाशनार्थ इमें भेज दिये हैं। इन पत्रांसे मुख्तार साहबकी पत्र-लेखन-प्रणाली, अपनी हर साहित्यिक पंक्ति के प्रति सचेष्टता और ज्ञान तथा स्वभाव पर बहुत सुन्दर प्रकाश पड़ता है। अपने जीवन में पण्डितजीने इस प्रकारके सैंकड़ों पत्र लिखे हैं। अब समय आगया है कि उन सबका संग्रह हो। मुख्तार महोदयके कोई प्रेमी यदि यह काम कर सकें, तो मुख्तार महोदयके जीवनकी बहुत कीमती सामग्री मंग्रह हो जाए और साहित्यकी प्टिसे भी वह बड़े महत्वका काम हो । इम इन पत्रोंके लिये श्री गान्धीजीके कृतज्ञ है। -सम्पादक वीरसंवा मन्दिर सरसावा (सहारनपुर) हलकी जबानसे पढ़ा जाता है तो वह लघु होता है--गुरु ना०४-८-४२ नहीं, और भागे इसके उदाहरण भी दिये गये हैं। प्रिय महानुभाव श्री नेमचन्द बाल चन्दजी गान्धी 'छन्दःप्रभाकर' नामके भाषा पिङ्गल में भी ऐसा ही सस्नेह जयजिनेन्द्र। विधान है--- ता. २५ का कृपापत्र मिला। इस कृपाके लिये 'भाषकाव्यमें संयोगीअक्षरके कादिवासघु स्वर कहीं लघु प्राभारी हूं। कवितामें काव्य दृष्टिसे जो अटियों पाप और कहीं गुरू माना जाता है। जहांगुरूमाना जाता है वही उसकी मालूम पड़ी हैं, वे ठीक नहीं है। जान पड़ता है, किापने दो मात्रा गिनी जानी हैं और जहां लघु माना जाता है वहीं हिन्दी कविताओं को संस्कृत-काव्य-नियमोसे जाँचनेका प्रयत्न उसकी एक मात्रा गिनी जानी है। यथा, लघुका उदाहरण-- किया है, और इसीसे आप यह लिम्बनेके लिये वाध्य हुप "शरद जुन्या मोदप्रव, करत कनया रास।" हैं कि -"हिन्दी कविताओंमें अक्सर काम्यनियमोंका पालन वर्णका गुरुत्व अथवा लघुत्व उसके उचारण पर नहीं होता" परन्नु जाँचका यह तरीका समुचित नहीं है। निर्भर है, जैसा इस दोहेसे मिलू होता है-- हिंदी, प्राकृत और अपभ्रंश प्रादि भाषाओंकी कविता 'दीग्ध ह लघु कर पढ़ें लघु हू दीग्ध जान । सर्वथा संस्कृत-काव्य-नियमों पर अवलम्बित नहीं है-उन मुखसौ प्रगट सुख-महित कोविद करत बखान ॥" के अपने नियम भी हैं, जिन परसे उन्हें जांचना चाहिये। --छंद प्र. पृ. ४, संयुक्ताक्षरसे पूर्वका वर्ण मदा गुरु हो. ऐसा नियम हिंदी ऐसी हालतमें 'संयुक्ताचं दीर्घम्' इस वाक्य प्राशय श्रादि दूसरी भाषाओंका नहीं है- वह लघु भी होता है, को लेकर जो भी त्रुटियों पारने बतलाई उनमें कुछ भी सार जैसा कि कवि राजमझके पिंगलके निम्नवाक्यसे प्रकट, नहीं है, और न उनके कारण छंदोभंग होकर कोई दोषाजिसमें नियम देते हुए उदाहरणके तौर पर परिषहसह' । पत्ति ही खड़ी हो सकती है। पदके 'रि' भतरकीभोर उसके लघु होने का संकेत किया है यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूं कि "काय वि संजुत्त-वरो वरुणो बहु होईसणेश जहा संस्कृत व्याकरणमें स्पृष्टमम्तस्थानाम्' इस वाक्यके परिवहसह चिन्तषिजं तरूगि कडस्खम्मिणिघुन्तं ॥॥ द्वारा अन्तस्थ ब (य,र,ल,व)को 'ईषम्पृष्ट माना इसके बाद कवि राजमाने 'जह दोहो विनवण्या है। जहां ये बर्ष संयोग माते हैं, वहीं संयुक्काचरम पूर्व बाहुजीहा पबद्ध होडमो विबाहु हत्यादि वायके द्वारा का वर्ण दीर्थ नहीं भी होता. इस बातको अतसागरने यह भी बताया है, कि यदि कोई वर्ष दीर्घ है और वह बशस्तिनककी टीका एक उद्धत वाक्यके बंदीभग दोषका
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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