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________________ किरण ३] नयोंका विश्लेषण धर्मों की पिंडभूत वस्तुके एक एक धर्मको विषय करने वाला तो उस हालतमें ये प्रमाण वाक्यरूप होजावेंगे क्योंकि वाक्य माना गया है। अथवा यों कह सकते हैं कि जो वचन स्वतंत्ररूपमे भी प्रयोगाहं होता है जैसा कि इस उदाहरणमें विवक्षित अर्थका प्रतिपादन करता है वह प्रमाण और जो जो वाक्य महावाक्यका अवयव होनेके कारण नय वाक्यरूप वचन विवक्षित अर्यके एक देशका प्रतिपादन करता है वह ये दिखलाया गया है वही पहिले उदाहरणमें स्वतंत्र वाक्य नय कहलाता है। जैसे, पानीकी जरूरत होने पर स्वामी होनेके कारण प्रमाण वाक्यरूपसे दिखलाया गया है। नौकरको आदेश देता है---'पानी लाश्रो'! नौकर भी इस एक और उदाहरण महावाक्यका देखिये-एक विद्वान एक ही वाक्यसे अपने स्वामीके अर्थको समझ कर पानी किसी एक विषयका प्रतिपादक एक ग्रन्थ लिखता है और लाने के लिये चल देता है, इस लिये यह वाक्य प्रमाण- उस विषयके भिम २ दश अंगोंके प्रतिपादक दश अध्याय वाक्य कहा जायगा और इस वाक्यमें प्रयुक्त 'पानी' और या विभाग उस ग्रन्थके कर देता है। यहाँ पर समूचा ग्रंथ 'लाओं' ये दोनों पद स्वतंत्ररूपसे अर्थका प्रतिपादन करने में तो प्रमाणवाक्य माना जायगा क्योंकि वह विवक्षित विषयका समर्थ नहीं है, बल्कि अर्थ के एक-एक अंशका प्रतिपादन करने प्रतिपादक है और उसके अंगभूत दश अध्यायोंको नयवाक्य वाले हैं, इस लिये इन दोनों पदोंको नय-पद कहेंगे। यहां कोटिमें लिया जायगा, क्योंकि वे विवक्षित विषयके पक एक पर इस बात पर भी ध्यान रखनेकी जरूरत है कि जब तक अंशका प्रतिपादन करते हैं। यहां पर भी जब तक ये दश ये दोनों पद एक वाक्य के अवयव बने रहेंगे तब तक ही अध्याय ग्रन्थके अवयव रहेंगे तब तक नयवाक्य कहलायेंगे नयपद कहे जावेंगे और यदि इनको एक दूसरे पदसे अलग और यदि उन्हें अपने २ विषयका प्रतिपादन करने वाले कर दिया जाय तो उस हालत में ये प्रमाणरूप तो होंगे स्वतंत्र-ग्रंथसे पृथक-मान लिये जाये तो उस हालतमें ये ही नहीं, क्योंकि ऊपर कहे अनुसार पद प्रमाणरूप नहीं दशों अध्याय अलग २ प्रमाणवाक्य कहलाने लगेंगे। होता है, लेकिन उस स्वतंत्र हालत में ये दोनों पद नयरूप ज्ञान अपने आप में एक प्रखंड वस्तु है, इसलिये ज्ञानभी नहीं कहे जायेंगे। कारण कि, अर्थकी अनिश्चितताके रूप स्वार्थप्रमाणमें नयका विभाग संभव नहीं है। यही सबब ये अर्थ के एक अंशका भी उस हालसमें प्रतिपादन सबब है कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और नहीं कर सकते हैं। केवलज्ञान इन चारों जानोंको प्रमाणरूप ही माना गया हैदूसरा उदाहरण महावाक्यका दिया जासकता है, जैसे नयरूप नहीं। लेकिन स्वार्थप्रमाणभूत शुतज्ञानमें कि स्वामी नौकरको भानेश देता है-"लोटा ले जानो और पानी वाक्य और महावाक्यरूप परार्थप्रमाणको कारण माना गया लाओं' यहां पर विवक्षित अर्थ दो वाक्योंसे प्रकट होता है है। इसलिये परार्थप्रमाणमें बतलाई गयी नय व्यवस्थाकी इसलिये दोनों वाक्योंका समुदायरूप महावाक्य प्रमाणवाक्य 'अपेक्षा स्वार्थश्रत प्रमणरूप श्रुतज्ञानमें भी नय-परिकल्पना कहा जायगा और दोनों वाक्य उसके अवयव होनेके कारण संभव है । अत: विवक्षित पदार्थके अंशका प्रतिपादन विवक्षित अर्थके एक एक अंशका प्रतिपादन करते हैं इस करने वाले, वाक्य और महावाक्य के अवयवस्वरूप पद, लिये नयवाक्य कहलावेंगे । यहां पर भी वह बात ध्यान वाग्य और महावाक्य द्वारा श्रोताको जो अर्भके अंशका देने लायक है कि जब तक ये दोनों वाक्य एक महावाक्यके ज्ञान होता है वही नय कहलायेगा। इस तरह परार्षशतके अवयव है तब तक तो वे नयवाक्य रहेंगे और यदि इन समान स्वार्थश्रुतको भी प्रमाण और नयके भेदसे दो प्रकार दोनों वाक्योंको एक दूसरे वाक्यसे अलग कर दिया जाय का समझना चाहिये। (क्रमशः)
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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