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________________ किरण ४] नयोंका विश्लेषण १६९ सिर्फ उन दोनों के संबन्धका ज्ञान जो नेत्रों द्वारा नहीं होता बनाना है कि श्रतज्ञान अनुमानज्ञानपूर्वक हुआ करता है है वह अनुमान द्वारा किया जाता है। इसी प्रकार 'रूया कारण कि अनुमान ज्ञानका ही अपर नाम प्राभिबोधिक रसादि वस्तुके अंश या धर्म है' इस प्रकारके वाक्यको सुन ज्ञान है। दूसरा पद हमें यह बतलाता है कि चूंकि इसमें कर जो हमें शब्दार्थ ज्ञानरूपश्रुतज्ञान द्वारा 'रूप था रसादि शब्द कार सा पड़ता है इस लिये इसे श्रतज्ञान कहते हैं। वस्तुके अंश हैं' इस प्रकारका अवयवावयवी भावसंबन्ध. इस पर विशेष विचार स्वतंत्र लेख द्वारा ही किया जा ज्ञान हुमा करता है वह भी प्रमाणरूप ही समझना सकता है। चाहिये, नया नहीं। इस विषयको भागे और भी स्पष्ट शंका---पराश्रुतमें पद, वाक्य और महावाक्यका किया जायगा। भेद करके औ वाक्य और महावाक्यको प्रमाण तथा इनके शंका--गोम्मटमार जीवाडमें बतलाये गये श्रुतज्ञान भवभवभून पद, वाक्य और महावाक्यको नय स्वीकार के 'श्रर्थसे अर्थान्तर' का ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है' इस किया गया है। प्रमाण श्रीर नयी यह व्यवस्था "पानी लक्षणमें अनुमानका भी समावेश हो जाता है, इम लानी" इत्यादि लौकिक वाक्यों व महावाक्योंमें भले ही लिये शुतज्ञानमे भिन्न अनुमान प्रमाणको माननेकी संघटित कर दी जावे लेकिन इसका लोक-व्यवहारमें कोई श्रावश्यकता नहीं है। स्वाम प्रयोजन नहीं माना जा सकता है। माप ही वस्तु के स्वरूप-निर्णयमें यह व्यवस्थावातक होसकती है। जैसे वक्ता समाधान-हम पहिले बतला आये हैं कि शब्द केसमचे अभिप्रायको प्रकट करने वाला वाक्य यदि प्रमाण श्रवणपूर्वक हमें जो अर्थज्ञान होता है वह श्रुत कहलाता मान लिया जाय तो वौद्धोंका "वस्तु क्षणिक है" यह वाक्य है, अनुमानसे जो अर्थज्ञान हमें हुश्रा करता है उसमें शब्द अथवा नैयायिकोंका "वस्तु नित्य " यह वाक्य प्रमाण श्रवणको नियमित कारण नहीं माना गया है। पर्वतमें धुआंको देख का जो हमें अग्निका ज्ञान हो जाया करता है कोटिमें भाजायगा, जोकि प्रयुक्त है; कारगा कि जैनमान्यता के अनुसार वस्तु न तो केवल नित्य है और न केवल वह विना शब्दोंके सुने ही हो जाया करता है। दूसरी बात अनित्य ही बल्कि उभयात्मक। यही सबब कि जैनयह है कि श्रुतज्ञान मतिज्ञान-पूर्वक होना है । इसका अर्थ मान्यताके अनुसार वस्तुकं एक एक अंशका प्रतिपादन करने यह है कि वक्ताके मुखसे निकले हुए वचनोंको सुन कर वाले ये दोनों वारय नय-वाक्य माने गये हैं। श्रोता पहिले वचन और अर्थ में विद्यमान वाच्य वाचक संबन्धका ज्ञान अनुमान द्वारा करता है तब कहीं जाकर समाधान-जब नयको प्रमाणका अंश माना गया है शब्दसे श्रोताको अर्थज्ञान होता है यदि श्रोताको 'इस शब्द तो वचनरूप पार्थ प्रमायाका भी अंश हीनयको मानना का यह अर्थ है' इस प्रकारके वाच्य वाचक संबन्धका ज्ञान होगा, वचनरूप परार्थ प्रमाण वाक्य और महावाक्य ही नहीं होगा तो उसे शब्दोंके अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है हो सकता है यह पहिले बतलाया जा चुका है. इस लिये इस लिये अनुमान-पूर्वक श्रुतज्ञान होता है--ऐसा मानना पवाक्त प्रकार वाक्य और महावाक्यकेशभूत पद, वाक्य ठीक है, अनुमान और अतज्ञानको एक मानना ठीक नहीं। ३ मनि:स्मृति: संजाचा भनियो त्यनन्तरम" इस गोम्मटसार जीवकोंडमें जो श्रुतज्ञानका लक्षणा बतलाने सत्रमें अनुमान ज्ञानको ही श्राभिनिबोध संज्ञा दी गई है। .वाली गाथा है उसके दो पद महत्वपूर्ण हैं।"श्राभिणियो ४तत्वार्थसत्र और गोम्मटमार जीवकोंडमें जो श्रुतज्ञानके हियपुग्वं" और "सहर्ज"। इनमेंसे पहिला पद हमें यह भेद बतलाये गये हैं उनसे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है। १ "अत्यादी अत्यंतरमुवलंभंतं भणं ति सुदणाणं ।" "श्रुतं मतिपूर्व द्रुयनेकद्वादशभेदम्" न. अ. १ सूत्र २० -जीवकाँड, गाथा ३१४ "पजायक्रखरपद संघादंपडित्तियाणिजे गं च । २"श्राभिण्विोहिय पुवं णियमेणि ह मद्दनं पहुम" दुगवारपाहुई चय पाहुडयं वत्थु पुव्वं च ।।३१६॥" __ जीवकांड, गाथा ३१४ ( उत्तरार्ध) -गोम्मटमार जीवकांड
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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