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अनेकान्त
[ वर्ष ६
प्रधानतासे वर्णन करना जरूरी होता है उसी धर्मके प्रतिपादक वाक्यका प्रयोग जैनी लोग व्यवहार में भी किया करते हैं लेकिन जैनधर्मके ग्रन्थोंमें या जैनियों द्वारा लोक व्यवहार में प्रयुक्त इन वाक्योंको भी यदि ये अलग-थलग प्रयुक्त किये गये हैं---तो प्रमाण वाक्य ही कहा जायगा, नयवाक्य नहीं; कारण कि इन वाक्यों द्वारा एक धममुखेन वस्तुका ही प्रतिपादन होता है । जिस प्रकार नेत्रों द्वारा रूपमुखेन वस्तुका ही बोध होने की वजहसे उसज्ञानको प्रमाण माना गया है उसी प्रकार इन वाक्यों द्वारा एक धर्ममुखेन वस्तुका ही प्रतिपादन होने की वजहसे उन्हें भी प्रमाण-वाक्य ही मानना ठीक है नयवाक्य मानना ठीक नहीं हैं । लेकिन जहाँ पर ये दोनों वाक्य 'वस्तु नित्य है और अनित्य है, इस प्रकार मिलाकर प्रयुक्त किये जाते हैं वहांपर दोनों वाक्योंका समुदाय भी प्रमाण- वाक्य है क्योंकि वह विवक्षित अर्थ का प्रतिपादन करना है और उसके श्रवयव भूत दोनों वाक्य नवरूत कहे जायेंगे क्योंकि वहां पर उनसे विवक्षित श्रथंके एक अंशंका ही प्रतिपादन होता है ।
यह है कि 'वस्तु क्षणिक है' और 'वस्तु निष्य है' इन दोनों वाक्योंका स्वतंत्र प्रयोग करने पर यदि ये वाक्य एक धर्ममुखेन वस्तुका प्रतिपादन करते हैं तो प्रमाणवाक्य माने जायेंगे। यदि इस एक धर्मको वस्तुका एक अंश न मानकर तन्मात्र ही वस्तु मानली जाती है और फिर इन वाक्योंका प्रयोग किया जाता है तो यह दोनों वाक्य प्रमाणाभास माने जावेंगे। यदि इन दोनों वाक्योंका संमिलित प्रयोग किया जाता है और संमिलित होकर प्रयुक्त ये दोनों वाक्य सही अर्थका प्रतिपादन करते हैं तो ये वाक्य मय मानेज विंगे। यदि संमिलित होकर भी ये दोनों वाक्य गलत अर्थ का प्रतिपादन करते हैं तो नयाभास कहे जायेंगे। जैसे "द्रव्यदृष्टिसे वस्तु नित्य है और पर्याप दृष्टिसे वस्तु नित्य है. यह तो नय है और पर्याय दृष्टिले वस्तु निष्य है तथा द्रव्यदृष्टिसे वस्तु अनित्य है, " यह नयाभास माना जायगा । इसलिये परार्थश्रुतका विवेचन करते समय विवचित अर्थका प्रतिपादन करने वाले वाक्य और महावाक्यको प्रमाण और विवचित अर्थके एक अंशका प्रतिपादन करने वाले, वाक्य और महावाक्यके अंगभूत पद वाश्य और महावाक्यको नय मानकर जो इनका समन्वय
और महावाक्य को ही नय मानना ठीक है। लोक-व्यवहार में इसकी उपयोगिता स्पष्ट है क्यों कि पदार्थज्ञान ही से हम वाक्यार्थज्ञान कह सकते हैं और वाक्यार्थज्ञान हमें महावाक्य के अर्थज्ञान में सहायक होता है । वस्तु क्षणिक है" "वस्तु नित्य है" इन वाक्यों परार्थप्रमाया मानने पर जो आपत्ति उपस्थित की गयी है वह ठीक नहीं है; क्योिं जब वक्ता विवचित अर्थको प्रगट करने वाला वचन प्रमाण और वाकं विवक्षित अर्थके एक अंशको प्रगट करने वाला वचन नय मान लिया गया है तो इन वाक्योंका प्रयोग करने वाले बौद्ध और नैयायिकके विवक्षित अर्थको पूर्णरूप से प्रतिपादन करनेवाले ये वाक्य प्रमाण ही माने जायेंगे; नय नहीं माने जा सकते हैं; कारण बौद्ध और नैयायिक वस्तुको क्रमसे क्षणिक और नित्य ही मानते हैं। बौद्धों की दृष्ट वस्तुकं स्वरूपमें नित्यस्व और नैयायिकों दृष्टिमें वस्तुके स्व रूपमें दणिश्व शामिल नहीं है । इस लिये 'वस्तु क्षणिक है' इस व. क्यसे प्रतिपादित क्षणिकत्व बौद्धों का विवक्षित अर्थ
है, विवक्षित अर्थका एक अंश नहीं, यही बात नैयायिकों के विषय में समझना चाहिये। इन वाक्यों को नयाभाम भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि 'जो वस्तु का अंश नहीं हो सकता है उसको वस्तुका श्रंश मानना' ही नयागाम है; लेकिन नयाभास का यह लक्षण यहां घटित नहीं होता है क्योंकि यहां तो क्षणिकत्व अथवा नित्यत्व जो वस्तुके अंश हैं उन्हें पूर्ण वस्तु ही मान लिया गया है अर्थात् यहां पर अंशमें अनंशकी कल्पना है. अनंश में अंशकी नहीं । इसलिये बौद्ध और नैयायिकों की दृष्टि में क्रम से ये दोनों वाक्य प्रमाण वाक्य ही है, नयवाक्य नहीं । जैन लोग इन लोगोंकी इस दृष्टिको गलत कहते हैं, क्योंकि इन लोगोंने वस्तुके अंशभूत दकिरन या नित्यश्वको पूर्ण वस्तु ही मान लिया है इसलिये अंश में अंशीकी परिकल्पना होनेसे इसका प्रतिपादक वाक्य जैनियों की दृष्टि प्रमाणाभास दो कहा जायगा; नापर्य यह है कि यदि वस्तु केवलक्षणिक या केवल निश्य नहीं है तो केवल क्षणिकत्व या केवल नित्यस्वके प्रतिपादक वाक्य प्रमाण न होकर प्रमाणाभास तो माने जा सकते हैं। उनको नय अथवा नयाभास मानना ठीक नहीं है। जैनधर्म में भी 'वस्तु क्षणिक है,' या 'वस्तु नित्य हैं' ऐसे स्वतंत्र स्वतंत्र वाक्य पाये जाते हैं और जब जिस धर्मकी