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अनेकान्त
[वर्ष६
है, जानना परोक्ष कैसा ? वह तो प्रकाशके सहश से उत्पन्न होते हैं। उमास्वामीने-"तन्द्रियानिन्द्रियपदार्थों को स्पष्ट करता है! बहिरंग कारणोंमे प्रकाशमें निमित्तम्" इस सूत्रमें मतिज्ञान उत्पन्न करने के लियेअन्तर आ सकता है। नानारंगके कांचोंसे प्रकाशकं स्पर्शन, रमना, प्राण, चक्षु, श्रोत्र और मन ये छह रूपमें अन्तर आसकता है, वास्तवमें प्रकाश तो शुद्ध बहिरंग कारण बताये हैं। ये वास्तव में ज्ञानको उपएक रूप ही है। उसी प्रकार वहिरंग इन्द्रियादि कारणों योगरूप लाने में कारण हैं। लब्धिकी अवस्थामें वह की अपेक्षा ज्ञानमें परोक्ष कल्पना की गई है, बास्तवमें मतिज्ञान, (उतने अंशमें)विशद प्रत्यक्षके समान ही है। कानमात्र विशद रूप-प्रत्यक्ष ही है।
क्षानावरणकर्मका आवरण आत्माके जितने अंश यदि हम और भी विचार करें तो अवधिज्ञान में विद्यमान रहता है, उतने अंशमें ज्ञान प्रकट नहीं और मनःपर्ययज्ञान भी उत्पत्तिमें परापेक्ष हैं। गोम्मट- हो सकता। अतः क्षायोपशामक अवस्थामें-लब्धिसार जीवकाण्डकी ३७० वी गाथामें अवधिज्ञानके रूपसे निरावरण अंश प्रत्यक्षक समान निर्मल और स्वामीका वर्णन करते हुए, यह भी बताया है कि विशुद्ध होना चाहिये । मैं पहिल बता चुका हैं कि गुणप्रत्यय अवधिज्ञान-शंखादिक चिन्हों के द्वारा बायोपशमिज्ञानके समय आत्माके साथ अन्य अंशों हुश्रा करता है, तथा भरप्रत्यय अवधिज्ञान संपूर्ण- में ज्ञानावरण कर्मका सम्बन्ध रहता है, तथा क्षायिकअंगसे प्रकट होता है। इमीप्रकार मनापर्ययज्ञान भी ज्ञानके समय आत्माके किसी भी अंश के साथ ज्ञानाद्रव्यमनको आधार लेकर होता है । इस प्रकार परा- वरण कर्मका सम्बन्ध नहीं रहता। इसी लिये क्षायिक पेश होने पर भी अवधिज्ञान और मनःपर्ययछान और क्षायोपशामक दो भेदोंकी कल्पना की गई है। प्रत्यक्षही कहलाते हैं, क्यों कि उपयोगक ममय ये वास्तवमें जितने भी ज्ञान हैं, सभी प्रत्यक्षज्ञान हैं। आत्ममात्र सापेक्ष हैं। इसी प्रकार जब मतिज्ञान और पंचाध्यायीकारने कहा है-- श्रुतज्ञान आत्ममात्र सापेक्ष होते हैं, तब प्रत्यक्ष-ही अपि किं वाभिनिवोधकबोधद्वैतं तदादिम यावत । होते हैं।
स्वात्मानुभूतिसमये प्रत्यक्षं तत्समक्षमिव नान्यत् । जितने अंशमें ज्ञान हो रहा है, उतने अंशमें अर्थात्-केवल स्वात्मानुभूतिके समय जो ज्ञान झानावरण कर्मका-सर्वथा अभाव है। अन्य अंशोंमें होता है, वह यपि मतिज्ञान है, तो भी वह वैसा
आवरण विद्यमान होनेसे तथा उपयोग-रूपमें लाने ही प्रत्यक्ष है. जैमा कि श्रात्ममात्र सापेक्ष प्रत्यक्षज्ञान बाले कारणों के कारण ज्ञानको छायोपशामिक कहा है। होता है। यहां मतिझानका भी जब इन्द्रियोंकी अपेक्षा मतिज्ञान,श्रुत्तज्ञान,अवधिज्ञान और मन:पयंज्ञान ये नहीं होती, अर्थात् जब कंवल लब्धिरूप अवस्था चार ज्ञान झायोपशमिक-तथा केवलज्ञान क्षायिक होती है, उस समय प्रत्यक्षमान कहा है। अतः सभी ज्ञान है। इनमें मतिज्ञान और अतज्ञानको परोक्षज्ञान- ज्ञान प्रत्यक्षरूप ही हैं। केवल बहिरंग कारणों के कहा है, क्योंकि ये ज्ञान इन्द्रिय और मनकी सहायता कारण ज्ञानकी परोक्ष कल्पना करनी पड़ी है।
-जैन-नाट्य-माहित्यमें श्री भगवत्' जैनकी एक सर्वथा नवीन, सुन्दर, कला-कृतिचुभते सम्बाद, रस-भरे गीत, और
- दिशामें अपनी तरहकी यह अकेली श्रीपाल-मैनासुन्दरीकी अमर-कथाका
रचना है। सौ फीसदी स्टेज पर खेलने अमर-चित्रण ! हमारा दावा है कि इस ........... योग्य, बिल्कुल अाधुनिक ढंग, नई
-शैली और रोचकता से भरा 'माय' शिक्षाप्रद वीर-रसपूर्ण, पवित्रमूल्प-१) पो० अलग । डेढ़-सौ पृष्ठ ] पौराणिक-नाटक [सर्वात सुन्दर छपाई, मनोहर कव्हर !
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