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________________ किरण ३1 सभी ज्ञान प्रत्यक्ष हैं १०७ तृण-तुल्यं परद्रव्यं परं च स्वशरीग्वत। इस संसारके भोगोंके नीचमें रहता हुमा भी वह उन पर-समा समा मातुः पश्यन याांत परं पदम् ॥ में प्रारूक नहीं होता है। मोहरूपी समुद्रके तीर पर रहते अर्थात-दूसरेकी वस्तुको तृणतुल्य-अपने लिए सग्रह हुए भी वह उसके भीतर नहीं डूबता है और इसीसे धीरे या ममता अयोग्य, दूसरे जीवों को अपने शरीरफे समान- धीरे भारमबलका विकास करता हुमा इस ३५ सयमा जस प्रकार मुझे पीदा होती है उसी प्रकार अन्यको भी को प्रास करता है, जब वह उस अक्षय शासिके भंडारका र होता है, तथा दूपरेकी स्त्रीको अपनी माताके समान अधिपति बन जाता है, जिससे विश्वकी चास्माओंकी राधा -झनेवाला व्यक्ति उत्कृष्ट पदको प्राप्त करता है। शांत होती है। वह उस प्रात्मीक प्रकाशपुजको प्राप्त करता इस प्रकार पुण्य आचरणसे भामा उमत होती है। है जिसके निमित्तसे स्नेहपूर्ण अनंत बुझे हुए जीवन दीप ४ जीव भास्माको शरीर तथा भौतिक पदार्थोंसे भिन्न अंगमगा जाते हैं। वह विश्वविजेता भााद नामोसं संस्तुत बदन करता है। गृहस्थ होते हुए भी वह दिव्य लोकका किया जाता है। वह जन्म-जरा मृत्युके संतापसे मदाके मा-सा रहता है। उसकी मनोवृत्तिका इस प्रकार एक लिए मुक्त हो जाता है । संक्षेपमें यह कह सकते हैं कि मेनकांव चित्रण करता है रत्नप्रयके प्रसादसे पीडित, पतित, संत्रस्त जीव भी साधागहीदै गृहमें न रचे ज्यों जलसे भिन्न कमल है। रेण मानवसे महामानव बन जाता है, जो श्वर था परमा गा-नारिको प्यार यथा कांदमें हेम अमल है'। माके साम्राज्यका अधिपति ही नहीं होना है, बल्कि जो ययार पर गेही---गृहवासी रहता है किन्तु गृहस्थाके स्वयं परमात्मा बन जाता है। ऐसी ही मामा तीर्थर दमय कार्योम वह श्रामत नहीं होता है । जिस प्रकार महंत, जिन, बुद्ध, सीर धादि शुभ संज्ञाशाको प्राप्त करती नी, बीच में रहनेवाला कमल पानीमे जुदा रहता है, पादाना है। यही मारमाका स्वभाव है-धर्म है, उसीको प्राप्त करने । जैम वेश्या किमी पुरुष पर प्रांत रक प्रेम नहीं रखती की तीथंकर महावीर, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ तथा उनके पूर्व१. श्रजना सुवर्ग कीचडम गिनेस केवल कामालनता वर्ती २१ वीथकरोंकी तस्वदेशना हुई थी। वही जैनधर्म है दिवाना है. किन्तु भीतरी तौर पर सुबर्ण अपने गुण- और सच पूछिये तो विश्वधर्म भी वही है। धमम युक्त रहता है उसी प्रकार विवेकी गृहस्थ जगत् कार्य करते हुए भी उनसे अलिप्त सी मनोवृत्ति रखना है छहढाला सभी ज्ञान प्रत्यक्ष हैं (ल०-६० इन्द्रचन्द्र जैन शास्त्री) श्रात्माको ज्ञानस्वरूप स्वीकार करनेमें प्रायः फी शक्ति प्रावरण-रहित होती जाती है, इसीको जैनभी महमत हैं। ज्ञान और आत्मा दो भिन्न २ पदार्थ सिद्धान्तमें "लब्धि" कहा है। इसके पश्ात् पदार्थों को नहीं किन्तु एक ही रूप हैं। आत्माको छोड़ कर ज्ञान जाननेरूप जो व्यापार होता है उसे-उपयोगकहते हैं। गुणका अन्यत्र सर्वथा अभाव पाया जाता है, इसी क्षायोपशमिष रूप लब्धिको उपयोगरूप करने में लिये अन्य पदार्थ जड़रूप कहलाते हैं। इन्द्रिय, मन श्रादिकी आवश्यकता होती है। क्षायिक ज्ञान-गुण आत्मामें सदा विद्यमान रहने पर भी, अवस्थामें किसा प्रकारके सहारेकी-आवश्यकता नहीं ज्ञानावरण कर्मरूप पावरणके कारण पदार्थोंको जानने होती। इसी सहारे और विना सहारेके कारण ज्ञान में अममर्थ रहता है। ज्ञानावरण कर्म जितने अंशोंमें की परोक्ष और प्रत्यक्ष कल्पना की गई है। वास्तवमें नष्ट हो जाता है, उतने ही अंशोंमें पदार्थोंको जानने ज्ञान परोक्ष नहीं हो सकता। ज्ञानका कार्य तो जानना
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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