SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ अनेकान्त [बर ६ . यह विश्वमै शिक्षा बौद्धिक रूपको प्राप्तकर स्था तथा दृष्टि पर प्रकाश डालते हुए एक कवि कहता हैअनेकान्तबाद ना. र्शनक विचारप्रणालीको उर. अरि-मित्र महल-मसान कंचन-पाँच निंदन-तिकरन । करती है. जो यह ब. कि दुरावपूर्ण दृष्टिकोणको अर्घावतारन-सहारनमें सदा समना घरन ॥ छोडकर उदारता : सपूर्ण सत्यका दशन था समादर इस विषयको पढ़कर प्राजकी शान्त दुनियामें रहने करो। वह विश्वमें बिनो धार्मिक मतभेदको दूरकर वाला व्यक्ति यह सहया कह उठेगा यह हो स्वमसाम्राज्य एकताका मार्ग बनाई. जर कोई ज्ञानका कोई भक्तिका जैसी बात है। कुछ ऐसा मार्ग हो, जिसका हम जैसे कोई क्रियाकाण्डवा पकड़कर अन्यको निरुपयोगी साधारण स्थिति वाले पालन पर सोर शांत लाभ करें। कहना है, तो यह कानापनाको कल्याणकारी बताती आशंका चनुचित नहीं है। मध्यम स्थितिक व्यक्तियों इस अनेकामवान बीन्द्वक उदारता मतभेद-साहि- को मद्देनजर रखते हुए प्राचार्योंने शिक्षा दी है कि तुम ब्णुताकी उत्पत्ति होती . प्रोफेसर फणिभूषण अधिकारी मोटे पापोंसे बचो. अन्यायरूप आचरण न को, दूसरोंको एम. ए. का कथन कि "इय बौद्धिक निष्पक्ष-अनेकान्त न सतायो। झूठ न बोलो. चोरीसे बचो अपनी पत्नी में 'नीतिके बिना कोई दाशनक या वैज्ञानिक अनुसंधान-खोज संतुष्ट रहकर अन्य नारियोंमें म तृभाष, बहन या बेटीकी का काम पूर्ण नहीं हो सकता है।" यथायोग्य दृष्टि रखो, अपनी पारश्यकताको मर्यादित इस विश्वमैकी पावनाका व्यावहारिक रूप अहिंसा करो दुखी तथा असमर्थ प्राणियोंको द्रव्यका, औषधिका का तत्वज्ञान है। इस हप है कि, प्रायः प्रत्येक धर्ममें ज्ञानका, अभयपनेका दान दो, न्यायपूर्ण आजीविका करो। वर्णन किया गया है। पूर्गा वैज्ञानिक और व्यावहारिक धर्मके साथ समाज-गटके संरक्षण तथा लोकोपकारका भी रूप देकर हदयंगम भने । कार्य जैनग्रंथों में मिलता है। ध्यान रखो। वर्तव्य पालनसे पीछे न हटो। वीरता मुख इस अहिंमाके श्रापमा पह ग्रागी गगद्वेषादि दोषोंसे न मोडी करतासे बचे रहो। संक्षेपमें गृहस्थका धर्म है। मुक्त होकर पारमाव: अवस्थाको प्राप्त करता है। Do your duty amd do it ar humamity an किमी प्राणीको न माम मांस न खाना, शिकार न खेलना, you can. अपना वन्य पालन करो, और यह जितना अधिक करुणा करके तैयार होते हैं उन उपयोग न करना प्रादि अहिंसा पूर्वक बन सके, उतनी दयापूर्वक कगे। के बाह्य रूप हैं। वास, नभं क्रोधादि विकारोंपर विजय प्राप्त माज जो विश्वकी बुरी हालत हो रही है, ज्ञानकी करना अहिमा है। कीमाशा करते हुए भी यदि हमारी उमनि होने हुए भी मनुष्य मनुष्यके रक्तका प्यासा होरहा मनःशुचि न हो सकी हम हिसासे दूर ही रहेंगे। है, सर्वत्र अशान्ति, शोभ, कलहका बाजार गरम नज़र सत्य. ब्रह्मचर्य, अचार्य, अपरिग्रह अहिंसाकं हीरूपान्तर है। प्राता है, उसका इलाज यही है, कि मनुष्य अपने कार्योंका इमका पूर्णतया पालन करनेवाले महान साधकोंको उत्तरदायित्व अन्य शक्तिके उपर न डालकर अपनी आत्मा दिगम्बर मुनि कहते हैं, जो मनमा, वाचा, कर्मणा जीव- को ही अपने कर्मोंका भोक्ता श्रद्धान करे। इस नैतिक जिम्मेरक्षा तथा प्रारमशुद्धिमें संलग्न रहते हैं। इस पदको प्राप्तकर दारीसे दृष्टि(Outlook में अंतर होगा हिसासे विमुख हो। यह जीव अपूर्व शान्ति प्राप्त करता है । वह रागद्वेषसे जरूरतसे अधिक पदार्थोंकी लालसाको छोडे । सत्यका व्रत अपनेको सतर्कतापूर्वक बचाता है। उसकी समतापूर्ण अव- ले। अन्यायपूर्ण वृत्तिको छोडे। पवित्र सात्विक महारपान १इसका खुलासा बिवेनन C. R.Jain Bar-at- करे, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की दृष्टिको लेकर काम करे, तो law की 'Confluence of opposites' या दुनियाकी कायापलट हो सकती है। इत्तिहादुल मुम्बालफीन' पुस्तकमें देखना चाहिए । इस कुलभद्र भाचार्यकी गृहस्थके लिए कितनी अच्छी लेख में विशेष वर्णनका स्थान नहीं है। भर उपयोगी शिक्षा है कि
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy