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________________ किरण ७] समन्तभद्र-मारतीके कुछ नमूने भूषा-वेषाऽऽयुध-स्यागि विद्या-दम-दया-परम् । रूपमेव तवाचष्टे धीर! दोष-विनिग्रहम् ॥४॥ __'हे धीर पर जिन ! प्राभूषणों, वेषों तथा श्रायुधोंका त्यागी और ज्ञान, कषायेन्द्रिय-जय नथा दयाकी उत्कृष्टताको लिये हए आपका रूप ही इस बातको बतलाता है कि आपने दोषोंका पूर्णतया निग्रह (विजय) फिया है क्योंकि गग तथा अहंकारका निग्रह किये विना कटक-केयूरादि प्राभूषणों तथा जटा-मुकृटरक्ताम्बरादिरूप वेषों के त्यागने में प्रवृत्ति नहीं होती, द्वेष तथा भयका निग्रह किये विना शस्त्रास्त्रोका त्याग नहीं बनता, अज्ञानका नाश किये विना शान में उत्कृष्टता नहीं आती, मोहका क्षय किये बिना कषायो और इन्द्रियोंका पूग दमन नहीं बन पाना और हिंसावृत्ति, द्वेष तथा लौकिक स्वार्थको छोड़े विना दयामें तत्परता नहीं पाती। समन्ततोऽभासा ते परिवेषेण भूयसा। तमो बाह्यमपाकीणमध्यात्म ध्यानतेजसा ॥१०॥ 'मब ओरसे निकलने वाले आपके शरीर-तेजों के बृहत् परिमंडलसे-विशाल प्रभामंडलसे-आपका बाह्य अन्धकार दूर हुश्रा और ध्यानतेजसे आध्यात्मिक-ज्ञानाबरणादिरूप भीतरी-अन्धकार नारको प्राप्त हुआ है।' मवैज्ञज्योतिषोनस्तावको महिमोदयः । कंन कुर्यात्प्रणम्र ते सत्वं नाथ! सचेतनम् ॥ ११ ॥ 'हे नाथ अरजिन ! सर्वज्ञको ज्योतिसे-ज्ञानोत्कर्षसे-वृत्पन्न हुआ आपके माहात्म्यका उदय किम्म सचेतन प्राणीको-गुण-दोष के विवेकमें चतुर जीवात्माको-प्रणम्रशील नहीं बनाता? सभीको श्रापक श्रागे नत-मस्तक करता है। तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषा-स्वभावकम् । प्रीणयन्यमृतं यबस्पाणिनो व्यापि संसदि। 'श्रीसम्पन्न- सकलार्यके यथार्य प्रतिपादनकी शक्तिसे युक्त-सर्व भाषाओंमें परिणत होनेके स्वभावको लिये हुए और समवसरण सभामें व्याप्त हुभा आपका बचनामृत प्राणियोंको उसी प्रकार तृप्त-संतुष्ट करता जिस प्रकार कि अमृत-पान । अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शन्यो विपर्ययः। ततः सर्व मृषोतं. स्यात्तदयुक्तं स्वयात्ततः॥१३॥ ___(हे अरजिन !) आपकी भनेकान्तदृष्टि (अनेकान्तात्मक-मतप्रवृति) सती-समधी है, विपरीत इसके जो एकान्त मत है वह शून्यरूप असत् है*अतः जो कथन अनेकान्त दृष्टिसे रहित-एकान्त दृष्टिको लिये हुए है वह सब मिथ्या है, क्योंकि वह अपना ही-सत्-असत् श्रादि रूप एकान्तमतका री-घातक है-- अनेकान्तके बिना एकान्तकी स्वरूप-प्रतिष्ठा बन ही नहीं सकती। ये परस्खलितोनिद्राः स्वदोषेभनिमीलिमः । तपस्विनस्ते किं कुर्युरपात्रं स्वन्मत:श्रियः ॥१४॥ “यह सब कैसे है, इस विषयका विशेष जाननेके लिये 'समन्तभद्रभारती के सुमति-जिन और सुविधि-जिनके स्तोत्राको सार्थ रूपमें देखना चाहिये।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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