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________________ मुद्रित श्लोकवार्तिकी त्रुटि पूर्ति किरण १०-११ ] जावेगा, दानवा अट्टहास करती हुई ताण्डव नाचेगी । और जानते हो इन अत्याचारोंका कारण कौन होगा ? तुम ! न्यायासनपर बैठकर असत्यभाषण करनेवाले तुम ! चसु सम्हलो, सांचो ! तुम्हारे ये वचन भविष्य में क्या करेंगे, जरा विचारो ! मित्र अभी समय है" नारद विकल हो रहा था वसुकी दशा देखकर अपने मित्र की दयनीय हालत उमे असहनीय थी। उसने वसुको समझाया बुझाया-मय दिखाया किन्तु वसु बेचारा वसु अपनी रक्षा न कर सका । देश भरकी रक्षाका दम भरनेवाला नृपति चाज अपने श्राप को निस्सहाय अनुभव कर रहा था । वेदना और ग्रात्म आचार्य विद्यानन्दका तत्वार्थश्लोकवार्तिक सन् १६१८ में मुद्रित हुआ था, और सेठ रामचन्द्र नाथारंगजी गांधीने उसे प्रकाशित कराया था। जिस ग्रन्थप्रती परसे इसका उद्धार किया था वह प्रति प्रायः अशुद्ध थी और उसमें कुछ अंश टेत थे अथवा पढ़ने में नहीं आने कारया बे मुद्रित होनेसे छूट गये थे। उस समय ग्रंथ सम्पादनादिके लिये अन्य प्राचीन हस्तलिखित प्रतियोंका मिलना भी अत्यन्त कठिन नहीं तो दुःसाध्य ज़रूर था। अतः उपलब्ध एकादी प्रतियों परसे ही सम्पादिका कार्य सम्पन्न किया जाता था । अस्तु, मुद्रित प्रतिमें कुछ सूत्रोंका भार भी उपलब्ध नहीं है। जिससे अनेक स्थलों पर कार्तिकको लगाने में बड़ी दिशत उपस्थित होती है। हाल में मुझे लोक वार्तिककी एक हस्तलिखित प्रति प्राप्त हुई है जो खतौलीके दि० जैनमंदिर सराफान्के ग्रन्थ भण्डारकी है। यह प्रति प्रायः शुद्ध मालूम होती है। इस प्रतिसे मुद्रित प्रतिका मिलान करने पर वे सब त्रुटित अंश पूरे हो जाते हैं और सूत्रस्थलोंके छूटे हुए भाग्य मी पूर्ण हो जाते हैं। सबसे महत्वको बात तो यह है कि मुद्रित प्रतिमें और कुछ हस्त ग्लानि से जला जा रहा था, किन्तु गुरुपत्नीकी ज्ञा उसके सिरपर सवार थी । वसु क्षत्रिय था । वचनका पक्का था 'प्राण जांग पर वचन न जाई' उसके कुलका नियम था । वह एक बार फिर शब्द एकत्र कर बोला- 'पर्वतका पक्ष ठीक है, मैं निर्णय देता हूँ ।' कम्पनके साथ पृथ्वी फटी और वसु सिंहासन सहित उसमें समा गया लोगोंने कहा 'असत्यभाषणका फल पाया ।' + मुद्रित श्लोकवार्तिककी त्रुटि पूर्ति ( ले० - पं० परमानन्द जैन शास्त्री ) ३४३ लिखित प्रतियों में भी चतुर्थ अध्यायका 'लोकान्तिकानामी सागरोपमाणि सर्वेषां' ४२ नं० का सूत्र उपलब्ध नहीं था और न उसका भाग्य या वार्तिक ही पाया जाता था जिससे विद्वानोंने यह कल्पना करती थी कि आचार्य विद्यानंदने उतसूत्र माना ही नहीं है। परन्तु इस प्रतिमें वह सूत्रमव बार्तिक भध्यके पाया जाता है अतः पाठकोंकी जानकारी के लिये मुद्रित प्रतिके रिक्तस्थानीय त्रुटित अंशोंकी पूर्ति नीचे दी जाती है : पृष्ठ १६२ पंक्ति १८ कारिका ६ के तृतीय चरण में रिक्त स्थान पर 'मनः पर्यययां येन' पाठ है । पृष्ठ २२६ पक्ति २ के मध्यभागमें 'इति' शब्दके आगे 'नैषं मन्यन्ते' पाठ है। इसी पृष्ठकी कारिका ८ की १८ वीं *पं• माणिकचन्दजी म्यायाचार्य सहारनपुर से मालूम हुआ कि मूडविद्रीकी प्रतिमें भी उक्त सूत्र मय भाष्यवार्तिक के पाया जाता है, वहाँके विद्वान् पं० लोकनाथजी शास्त्रीने उक्त सूत्र उक्त प्रतिपरसे उद्धृत करके भेजा था। इससे स्पष्ट है कि कितनी ही प्रतियों में लेखकोंसे सावधानीवश उक्त सूत्र छूट गया जान पड़ता है ।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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