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________________ अनेकान्त [वर्ष ६ संज्ञा दी गयी है। पश्णिन हो जाया करता है। शरीर के अंगभूत बाध स्पर्शन, रसना, नासिका नेत्र ये दोनों मरिज्ञान और श्रुतज्ञान ऐन्द्रियिक ज्ञान माने और कर्ण इन पांच इन्द्रियों और मनकी सहायता' से गये हैं; कारण कि मतिज्ञान पूर्वोक्त प्रकारमे पान इन्द्रियों प्राणियोंको जो पदार्थों का ज्ञान हुया करता है वह मति- और मनकी सहायतामे और श्रुज्ञान अंतरंग इन्द्रिय स्वज्ञानो.योग कहलाता है और इसमें काग्णभूत ज्ञानगुणके रूप मनकी सहायतासे हुश्रा करता है। श्रुतज्ञान और विकामको मज्ञानलब्धि' समझना चाहिये अर्थात् ज्ञातामें मानस-त्यक्षरूप म तज्ञानमें इतना अन्तर है कि श्रुतज्ञानमतिज्ञानावर यमके अभावसे पैदा हुआ पात्माके ज्ञान में श्रोताको वक्ताके शब्द सुनने के बाद उन शब्दोंके प्रतिपाच गुणका मनिज्ञान-लब्धिरूप विकास ही पदार्थका मानिध्य अर्थका ज्ञान मनकी सहायतासे होता है और मानस- त्यक्ष पाकर पांच इन्द्रियों तथा मनकी सहायतार्म होने वाले रूप मतिज्ञानमें शब्द-श्रवणकी अपेक्षारहित साक्षात् पदार्थपदार्थज्ञानरूप मतिज्ञानोपयांगमें परिणत हो जाया करता का ही ज्ञान ज्ञाताको मनकी सहायतासे हुश्रा करता है। है। इसके इन्द्रियादि निमिती अपेक्षा दश२ भेद माने पदार्थज्ञानमें शब्दश्रवणको कारण माननेकी वजहसे ही गये हैं--स्पर्शनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, रसनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, नासिके. श्रु ज्ञानको श्रुत नाम दिया गया है। न्द्रिय-प्रत्यक्ष, नेत्रेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, कर्णेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, मानस. अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों प्रत्यक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान । ज्ञान प्रतीन्द्रिय माने गये हैं। क्योंकि इन तीनों ज्ञानाम शब्द-श्रवण' पूर्वक श्रोताको मनकी' महायताये जो इन्द्रियादि बाह्य निमित्तोंकी महायताको अपेक्षा जैनधर्मने सुने हुए शब्दोंका अर्थज्ञान होता है वह श्रुतज्ञानोपयोग नहीं मानी है। इनके विषयमें जैनधर्मकी मान्यता यह है कहलाता है और इसमें कारणभूत ज्ञानगुणके विकासको कि ज्ञातामें अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानाचरण और 'श्रतज्ञानलब्धि' समझना चाहिये अर्थात् श्रोतामें श्रतज्ञाना- केवलज्ञानावरण कोंके अभावसे पैदा हुथा आत्माके ज्ञान वरणकर्मके अभावये पैदा हुआ आरमाके ज्ञानगुणका श्रृत- गुणका क्रममे अवधिज्ञानल ब्धि, मन:पर्ययज्ञानल ब्धि और ज्ञानल विधरूप विकास ही बनाके शब्दोंको सुनते ही मन- केवल ज्ञानल ब्धि रूप विकास ही पदार्थका सान्निध्य पाकर की सहायतासे होने वाले शब्दार्थज्ञानरूप श्रुतज्ञानमें बाह्य इन्द्रियादिककी सहायताके बिना ही स्वभावत: अवधि- वाले मातज्ञानके बार में लधि और उपयोगकी प्रक्रिया ज्ञानोपयोग, मनःपर्ययज्ञानोपयोग और केवल ज्ञानोपयोग को बतलाना है परन्तु यह लब्धि और उपयोगकी प्रक्रिया रूप परिणत हो जाया करता है। पाची ज्ञानाम समान समझना चाहिये। जैनधर्ममें इन पाँचों प्रकारको ज्ञानल ब्धियों और पार्टी दिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्नम्" तत्वार्थसूत्र अ.१ सू०१४ प्रकारके ज्ञानोपयोगीको प्रमाण माना गया है. इस लिये २ "मनि: स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्" प्रमाण कहे जाने वाले ज्ञानके उशिखित पांच भेद ज्ञान--तत्वार्थसूत्र श्र.१ सृ० १३ लब्धि और ज्ञानोपयोग दोनोंके समझना चाहिये। चूंकि यहांर मति शब्दसे स्वशंनेइन्द्रिय-प्रत्यक्ष प्रादि ६ मेदोका ज्ञानल ब्धि ज्ञानोपयोगमें अर्थात् पदार्थज्ञानमें कारण है इस तथा स्मृति,संज्ञा, चिन्ता और अभि-नबोध शब्दोसे क्रमश: लिये पदार्यज्ञानरूप फलकी अपेक्षा ज्ञानलब्धिको प्रमाण स्मृति, प्रत्यभिशान,नक और अनुमानका ग्रहण करना कहा गया है। और ज्ञानोपयोग अर्थात पदार्थज्ञान होनेपर चाहिये। ज्ञाता जाने हुए पदार्थको इष्ट समझ कर ग्रहण करता है, ३ 'श्रुतं मतिपूर्वम्......"1 --तत्वार्थसूत्र अ सू०२. अनिष्ट समझ कर खोदता है तथा इटानिष्ट कल्पनाके यहांपर 'मति' शब्दमे शब्दश्रवण अर्थात् कर्णेन्द्रिय-प्रत्यक्ष अभावमें जाने हुए पदार्थको न ग्रहण करता है और न को ही ग्रहण किया गया है। छोड़ता है बल्कि उसके प्रति वह माध्यस्थ्यरूप वृत्ति धारण ४ "थुममनिन्द्रियस्य"। --तत्वार्थसत्र न. २ सू० २१ ५ ........."सहज पहुमं"-गोम्मट जीवकांड गाथा ३१४
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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