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________________ नयोंका विश्लेषण (ले०--श्री०पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य) [इस लेखके लेखक महोदय पं. वंशीधर जी जैनममाज के एक सुजमे हुए सुप्रमिद्ध विद्वान है--गम्भीर विचारक होनेके साथ साथ बड़े ही निरभिमान एवं सेवापरायण हैं-समाज-सेवक होनेके साथ साथ देश-सेवक होनेका भी श्रापको गौरव प्राप्त है, आप अभी अभी सालभरकी जेलयात्रा करके श्राए हैं। जेलसे श्राते ही आपने जो लेख लिखा उसे पहली किरणमें 'धर्म क्या है?' इस शीर्षक के साथ पाठक पढ़ चुके हैं। आज यह आपका दुमरा लेख है, जिसे श्राप के प्रमाण-नय-विषयक अनुभवका निचोड़ कहना चाहिये । लेख अच्छी सधी हुई लेबनीसे लम्बा गया है और विद्वानों के लिये विचारकी तथा सर्वसाधारण के लिये प्रमाण-नय-विषयक ज्ञानकी यथेष्ट सामग्री प्रस्तुत करता है ।--सम्पादक] (१) प्रमाण-निर्णय कबूल किया है और इसे ज्ञानावरण कर्म'२ नाम दिया है "प्रमाणनवैरधिगमः" यह तत्वार्थसूत्रके पहिले अध्यायका इस कर्मके भी पांचों ज्ञानोंके प्रतिपक्षी पांच भेद उसने ठा सूत्र है। इसमें पदार्थों के जाननेके साधनों का प्रमाण और कबूल किये हैं जिनके नाम ये हैं-मनिज्ञानावरण, श्रुतनयके रूपमें उल्लेख किया गया है। भागे चल कर इसी ज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानाबरण और अध्यायमें “मतिताधिमनःपर्ययके वलानि ज्ञानम्" केवलज्ञानावरण। (सू.) और "तत्प्रमाणे" (सूत्र १०) इन सूत्रों द्वारा जिस ज्ञानावरण कर्मके भभावसे प्रास्माके ज्ञानगणका ज्ञानके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान मतिज्ञानरूपसे विकास हो अथवा जो प्रात्माके ज्ञानगुण और केवलज्ञान ये पांच भेद मान का इनका ही प्रमाणरूप का मतिज्ञानरूासे विकास न होने दे उसे मतिज्ञानावरण से उल्लेख किया गया है। कर्म कहते हैं। इसी प्रकार श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण जैनधर्मकी मान्यताके अनुसार मनुष्य, पशु आदि जगत् ___ मनःपर्थयज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणका स्वरूप के सब प्राणियों में बाह्य शरीरके साथ संबद्ध परिणामी-नित्य समझना चाहिये। एवं अवश्य पात्मनामा वस्तुका स्वतंत्र अस्तित्व है और इन पान ज्ञानाबरण मौके प्रभावसे प्रास्माके ज्ञानयह मारमा प्रत्येक प्राणी में अलग अलग है, इसके गुणका क्रमसे जो मतिज्ञानादि रूप विकास होता है इस सद्भावसे ही प्राणियों के शरीग्में भिन्न २ नरहके विशिष्ट विकासको जैनधर्ममें 'ज्ञानल धि' नाम दिया गण है। इस व्यापार होते रहते हैं और इसके शरीरसे अलग होते ही ज्ञानलब्धिके द्वारा ही मनुष्य, पशु आदि सभी प्राणियोंको सब व्यापार बंद हो जाते हैं। पदार्थोंका ज्ञान हुमा करता है और प्राणियोंको होने वाले इस प्रास्मामें एक ऐसी शक्तिविशेष स्वभावत: जैन- इस प्रकारके पदार्थज्ञानको जैनधर्ममें 'ज्ञनोपयोग धर्म मानता है जिसके द्वारा प्राणियोंको जगतके पदार्थोंका २"प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशास्तद्विधयः" ।। सूत्र ३॥ श्राद्यो ज्ञान हुमा करता है। इस शक्तिविशेष को उसने प्रात्माका ज्ञानदर्शनावरण......." सूत्र ४ ॥ ज्ञानगण' नाम दिया है और इपको भी पारमा हीकी तरह ३"मतिश्राधिमन:पर्ययोवलानम॥ सूत्र ६॥ परिणामी--नित्य, अदृश्य तथा प्रत्येक प्रारमा अलग २ (तत्वार्थसूत्र ८ अध्याय) प्राना है। साथ ही इस ज्ञानगुणाको ढकने वाली ४,५"लब्ध्युग्योगी भावेन्द्रियम्" श्र.२ सूत्र १८ (तत्वार्थसूत्र) अर्थात् प्राणियोंको पदार्थज्ञान न होने देने वाली यहा पर ज्ञानको ही भाव नाम दिया गया है और उसे वस्तुविशेषका संबन्ध' भी प्रत्येक प्रात्माके साथ उसने इन्द्रिय मान कर उसके लांब्ध और उपयोग दो भेद मान १"सकवायत्वाजीवः कर्मणो योग्यान्पुरलानादत्ते सबंध:"|सू०२ लिये गये हैं। यद्यपि यह सूत्र सिर्फ पाँच इन्द्रियोंसे होने
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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