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________________ किरण ३] नयोंका विश्लेषण - कर लेता है इस लिये ग्रहण, त्याग और माध्यस्थ्य वृत्ति- कारण होनेकी वजहसे पगर्थ प्रमाण मान लिये गये हैं। रूप फलकी अपेक्षा ज्ञानोपयोगको भी प्रमाण माना गया स्वार्थ प्रमाणरूप श्रुतको स्वार्थश्रुत, ज्ञानश्रुत, भावभुत और है। जैनधर्मका दर्शन मुख्यरूपसे इस ज्ञानोपयोगको' ही श्रुतझान भी कहते हैं और परार्थप्रमाणरूप श्रुतको प्रमाण मानता है। परार्थन, वचनश्रुत, शब्दश्रुत, द्रव्यश्रुत, अथवा सिर्फ (२) प्रमाण के भेद स्वार्थ और परार्थ वचन अथवा शब्द भी कहा करते हैं। मति भादि ज्ञानावरण--कर्मों के प्रभावसे होने वाला जिस प्रकार श्रोताको वक्ताके मुखसे निकले हुए मारमाके ज्ञानगुणाका मति भादि शानलब्धिरूप विकास स्व वचनोंद्वारा पदार्थज्ञान होता है उसी प्रकार वकाके अर्थात अपने आधारभूत ज्ञाताके ही पदार्थशान रूप शानो- लेखों द्वारा तथा अंगलि मादिके संकेतों द्वारा भी उसे पयोगमें कारण होता है इसी प्रकार पदार्थशान रूप ज्ञानो- पदार्थज्ञान होता है इसलिये इसप्रकारके पदार्थज्ञानको स्वार्थपयोग भी स्व अर्थात् अपने आधारभून ज्ञाताकी ही ज्ञात- श्रुतमें और लेखों तथा अंगुलि आदिके संकेतोंको परार्थश्रुतमें पदार्थ में ग्रहण, ज्याग और माध्यस्थ्यभावरूप प्रवृति में अन्तभूत समझना चाहिये, क्योंकि श्रुतज्ञानमें कारणरूप कारण होता है इस लिये ज्ञानलब्धि और शानोपयोगरूप से माना गया वचन लेख तथा अंगुलि आदिके संकेतोंका दोनों प्रकारके ज्ञानोंको स्वार्थप्रमाण कहा गया है। लेकिन उपलक्षण (संग्राहक)माना गया है इसलिये बचनकी तरह स्वार्थप्रमाणके अतिरिक्त एक परार्थ नामका भी प्रमाण जैन लेख तथा अंगुलि मादिके संकेतों द्वारा जो पदार्थज्ञान होता है धर्ममें स्वीकार किया गया है वह श्रोताको होने वाले उसे" भी श्रुतज्ञान कहते हैं। परार्थश्रुतको आध्यात्मिक दृष्टि शब्दार्थ ज्ञानरूप श्रवज्ञानमें कारणभूत वक्ताके मुखसे निकले से पागम और उससे होने वाले पदार्थज्ञान रूप स्वार्थश्रुत हुए वचनोंके अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता है अर्थात को भागमज्ञान कहते हैं। जैनेतर दार्शनिक इन दोनोंको क्रम वक्ताके मुखसे निकले हुए वचन ही श्रोताके शब्दार्थज्ञानरूप से शब्द और शाब्दज्ञान कहते हैं। श्रतज्ञानमें कारण होनेकी वजहसे परार्थप्रमाण कहे जाते (३) परार्थश्रुतमें प्रमागा और नयका भेद । हैं। 'कि वचन प्रमाणभूत श्रुतज्ञानमें कारण है इस लिये चुपचारसे वचनको भी प्रमाण मान लिया गया है और वचन असर, शब्द, पद, वाक्य और महावाक्यके भेद कि शब्दार्थज्ञानरूप श्रुतज्ञानका प्राधार श्रोता होता है से पाँच प्रकारका होता है। इनमसे शब्दके अंगभूत निरर्थक और उसमें कारणभूत वचनोंका उच्चारणाकर्ता वक्ता होता अकारादि वर्ण अक्षर कहलाते हैं। अर्थवान् अकारादि अत्तर है इस जिये पर अथात् वचनोच्चारणका आधारभूत वक्ता तथा निरर्थक दो आदि अक्षरोंका अर्थवान् समूह शब्द से भिन्न श्रोताके ज्ञानमें कारण होनेकी वजहसे वचनको कहलाता है। अर्थवान् शब्दरूप प्रकृतिका सुप् अथवा तिङ परार्थप्रमाया कहते हैं। इस कथनसे यह निष्कर्ष निकलता प्रत्ययोंके साथ संयोग हो जाने पर पदोंका निर्माण होता है कि मसिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान है। और परस्पर सापेक्ष दो आदि पदोंके निरपेक्ष समूहसे ये चारों ज्ञान स्वाधिगममें कारण होनेकी वजहसे स्वार्थ त्मक:"--(राजवातिक) १-६ । “ज्ञानात्मक स्वार्थ प्रमाण ही कहे जाते हैं। लेकिन पूर्वोक्त प्रकार -श्रुतके दो भेद हो जानेसे ज्ञानरूप श्रुत स्वाधिगममें कारण होनेकी वचनात्मकंपरार्थम्" (मर्वार्थसिद्धि) १-६ । वजहसे स्वार्थप्रमाण और वचनरूप श्रत पराधिगममें ५ "प्राप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागम:” परीक्षा०३-६E इसमें आदि शब्दसे अंगुलि, लेख श्रादिको ही ग्रहण १ "स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्" ।-परीक्षा० १-१ २ "प्रमाणं द्विविधं स्वार्थ परार्थ च" । सर्वार्थसिद्धि १-३ किया गया है तथा अागम--शब्दसे श्रुतज्ञान अर्थ ३,"अधिगम हेतुद्विविधः स्वाधिगमहेतुः पराधिगम- लिया गया है। हेतुश्च, स्वाधिगम हेतुर्शानात्मकः, पराधिगमहेतुर्वचना- ६'सुपतिङन्तं पदम्" १४/१४-पाणिनिकृत अष्टाध्यायी
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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