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________________ महकारका भाव न रवा नही किमी पर क्रोध करें। देख दूसरीकी बढ़तीको कमी नां भाव धरूं। रह भावना एसी मेरी, सरल सत्य व्यवहार बन जहाँ ना इस जीवनमे, औरॉका उपकार होकर सुखम मन न फूले, दुम्बम कमी न घबराये, पचनवी रमझाम भयानक मडवीसे महिं भय खाये। रहे अडोल प्रकप चिम्न्तर, यह मन, इतर बन जावे, वियोग - अनिष्टयोगम सहनशालता दिखलाया मैत्रीभाव जगतमे मेरा मथ जाबोंम नित्य रहे, दीन दुखी जीवों पर मेरे तरसे करणालीत बहे। दुर्जन कर मार्गरती पर चोभ नहीं मुझको भावे, साम्यभाव पर मैं उन पर, ऐसी परिणति हो जावे। सुखी रहे सब जीव जगतक, कोई कभी न घबरावे बैर पाप माममान जोर जग निस्थ नये मगल गावे । घर घर चचा रहे धर्मको दात दुर हो जाये ज्ञान चरित उजत कर अपना मनुज सन्म फल सब पाये। .. गुणीजनोंको देख हवयमें मेरे प्रेम उमा भारे, बने जहा तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे। होऊँ नहीं कृान कभी मैं, दोह म मेरे उर भावे, गुण ग्रहणका भाव रहे मित, दृष्टि न दोषों पर जावे। ति भीति म्यापे नहिं जगम वृधि ममय पर हुमा करे धर्मनिष्ट होकर राजा भी। न्याय प्रजाका क्यिा कर। रोग-मरी-दुभिक्ष न फैले प्रमा शान्तिम जिया करे । परम हिमा-धर्म जगनमे, फैल सर्वहित किया करे । कोई बुरा कहो या अच्छा बचमी चावे या जावे, वाली वषो तक जीऊँ या मृत्यु माज ही भाजावे। अथवा कोई कैसा ही भय था लालच देने चावे, तो भी न्यायमार्गस मेरा , कभी न पर डिगने पाये। कैले प्रेम परस्पर जगमे मोड दूर पर रहा। अप्रिय कटुक कठोर शब्द नाहिं कोई मुबसे कहा करे बनकर सब युगवीर वयसे देशोचति रत रहा करें, वस्तुस्वरूप विचार खुशीपे सब दुस-सकट महा करे ।।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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