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________________ जैनधर्मकी एक झलक (ले० - पं० सुमेरुचंद्र दिवाकर शास्त्रो, बी० ए० एल-एल० जी०, न्यायतीर्थ ) संसारके सभी प्राणी सुख और शान्ति चाहते हैं । आत्मघात करने वाला व्यक्ति तक इस नियमका अपवाद नहीं है; कारण वह भी ग्रात्म-संतुष्टिको लक्ष्य बना कर ही कार्य करता है। इस शान्तिके लिए प्रयत्न-शील यद्यपि तमाम दुनिया पाई जाती है, किन्तु अपने प्रयत्न में पूर्णपफल पुरुषके दर्शन नहीं होते। वैसे तात्कालिक शांति या अल्पकालीन सुख तो बहुतों को मिलता है, किन्तु वह टिकाऊ नहीं होता है । कोई कोई विश्वकी वस्तुओंकी बहुलताको सुख का कारणा मानते हैं, किन्तु विश्वका महान समृद्धिशाली हेनरी फोर्ड उन सामग्रियों के बीचमें सुखी नहीं मालूम पड़ता, इसीसे वह कहता है कि "मेरे कारखानेमें काम करने वाले श्रमजीवियोंकी निराकुलता देखकर मुझे उनके प्रति ईर्षा पैदा होती है"। संसार में अध्ययनशील महापुरुषोंने अनुभव कर यह तत्वज्ञान दिया है, कि भौतिक वस्तुओंसे यथार्थ नहीं, नकली आनन्द मिलता है । वह सुख नहीं है; सुखकी फलक है। जैसे मृग-तृष्णा ( mirage ) को असली पानीका सरोवर समझ कर पीछा करने वाले हरियाकी प्यास नहीं बुकती और वह बहुत दुःखी होता है, उसी तरह जगतके दूसरे प्राणियों की भी हालत है। इसीको मद्देनजर रखने वाला संत कवि भूधरदास कहता है : दाम बिना निरधन दुखी, तृष्णावश धनवान । कहूँ न सुख संसार में, सब जग देखा छान ॥+ इस सुखकी खोज करने वाले प्राणीको जो उसके ध्येयको प्राप्त करा दे उसे ही महापुरुषोंने 'धर्म' कहा है । आजकल भौतिकताकी प्रबल भक्तिके कारण कुछ लोग +पारसपुराण हिन्दी पद्यमय xसंसार- दुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे - रत्नकरंडभावकाचार यतोभ्युदयनिःश्रेयसमिद्धिः स धर्म: योगसूत्र > यह समझते हैं, कि हमारे सुखोंका-उच्चतियोंका सबसे बदा शत्रु यही धर्म है । एक पश्चिमका विद्वान लिखता है"यदि हम मनुष्य जातिका कल्याण चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें धर्म और ईश्वरको गद्दीसे उतारना चाहिए । धर्म ही हत्या की जब है। कितने पशु धर्मके नाम पर रक्तके प्यासे ईश्वर के लिए संसार में काटे जाते हैं। समय आवेगा जब कि धर्म की बेहूदगी से संसार छुटकारा पाकर सुखी होगा।”+ यहां जो टीका की गई है, वह धर्मका जामा पहने हुए, किन्तु यथार्थ में, अधर्मको है। दुनिया प्रायः धर्मके सही उसूलों-- सत्य तत्वोंसे अपरिचित रहती है, और वह अंधश्रद्धा के सहारे अपने जीवनकी डोर ऐसे तत्वोंसे बांध लेती है. जो कि यथार्थ में धर्मसे उतना ही दूर रहते हैं, जितना अकाशसे पाताल । कुछ विपरीतदृष्टि तत्वज्ञ व्यक्तियोंने नामवरीके लिए भोले-भाले प्राणियोंको भुलावेमें डालनेके लिए ऐसे तरीकों और सिद्धान्तोंका अविष्कार किया. जो यथार्थ में अधर्म होते हुए भी धर्मके नाम पर जाहिर होते हैं। किन्तु चिना असलियतके नकली चीज़से कार्य सिद्ध कैसे हो सकता है ? रहीम कवि कहता है- " बड़े न हूजे गुनन विनु विरद बड़ाई पाय । कहत धतूरे सों कनक, गहनो गढ्यो न जाय ॥" सुवर्ण अर्थ वाले 'कनक' का कार्य उस धूतरेले नहीं निकलता है, जिसे शब्दशास्त्र में 'कनक' बताया गया है। उसका सेवन तो प्राण विनाशका कारण होगा। इसी प्रकार जो जो धर्म नामपर चीज़ विश्व के बाजार में क्ष्य पर मा विना मूल्य बेची जाती है, वह सब धर्म है, यह समीचकदृष्टि नहीं कही जा सकती । धर्म अंधविश्वासकी वस्तु नहीं है और न वह ऐसी कुम्हर बतियां हैं, जो विवेक या विचारकी 'तर्जनी' देख कर कुम्हला आयेगी । वास्तवमें धर्म एक विज्ञान है, जो + देखो प्रपंच परिचय पेज २१६
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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