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________________ भनेकान्त [वर्ष ६ बोका जा सकता है। शेष अपरके सात बजों काले भावकों उससे कहीं अधिक बढ़ी है। उसमें सुखाए, तपाए, के लिये वह सी दशामें अभय है किन्तु अभिपक प्रयवा सटाई-नमक मिलाए और यंत्रादिकसे विश मित्र किये हुए अन्य प्रकारसे प्रासुक होनेकी अवस्थामें अभय नहीं है। सचित्त वनस्पति-पदार्थ भी शामिल होते है, जैसा कि अपर इसके सिवाय, 'भूखाचार' नामक अतिप्राचीन मान्य दी हुई 'सुकं पर्क तत्त' इत्यादि प्राचीन गाथासे प्रकट है। ग्रन्थ और उसकी प्राचारवृत्ति टीका, मुनियोके लिये इस तरह जबस-स्थावर दोनों प्रकारकी हिंसाके पूर्व भषयामध्यकी व्यवस्था बतलाते हुए जो दो गाथाएँ दी हैं त्यागी महानती मुनि भी अभिपक अथवा अन्य-प्रकारसे के टीकासहित इस प्रकार है: प्रासुकबाखू चादि कन्द-मूल खा सकते तब पशुवती फल-कंद-मूल-बीर्य भामापर्क तु आमयं किंचि।। गृहस्थ श्रावक',जो स्थावरकायकी (जिसमें सब वनस्पति गचा असणीयं णवि य पडिच्छिति ते धीरा ।।-५ गर्मित) हिंसाकेतो त्यागी ही नहीं होते और त्रसकाय टीका-सानि कंदमूलानि बीजानि चामिपकानिन __ जीवोंकी हिंसा भी प्रायः संकल्पी ही चोदते हैं, कम्द-मूखाभवन्ति बानि मन्यवपि बामपरिकचिदनशनीयं ज्ञात्वा व दिकके सर्वथा त्यागी कैसे हो सकते हैं। इसे विचारशील प्रतीति नाभ्युपगच्छन्तिपीराइति ।यवशनीयं तवाह- पाठकोंको स्वयं समझ लेना चाहिये और इसखिये भोगोपजंहवदि अणब्बीयं णिट्टिम फासुयं कयं चेव। भोगःपरिमाण-तके कथनमें जहाँ मापकला-बहुविधातकी णाऊण एसरणीयं तं भिक्खं मुणि परिच्छति ॥ टिसे सामान्य शब्दों में ऐसे कन्द-मूलक त्यागका परामर्श टीका-पनवस्यबी निज निवर्तिमं निर्गत-मध्य- दिया गया है जो अनन्तकाय वही भी अनभिपक कई सारं प्रासुकृतं चैवशावाानीयं सजेषयं मुनयः तथा अप्रामुक कन्द-मुलक त्यागकाही परामर्श-शनिप्रतीच्छन्ति । (३-६.) पक तथा अन्यप्रकारसे प्रासुक एवं प्रचित हुए कन्द-मूलों इन दोनो गायाचोंमसे पहली गाथामें मुनिके लिये के त्यागका नहीं, ऐसा सममाना चाहिये। भागमकी दृष्टि 'चमचमण्या'और दूसरा भिषय क्या है इसका कुछ और नय-विवचाको साथमें न लेकर यों ही शब्दार्थ कर विधान किया। पहली गाथामें विस्खा है कि-जो फसा, डालना भूल तथा गलतीसे खाली नहींहै। अनिमें पके कन्द, मूखताबीज अधिसे पके हुए नहीं है और और अथवा अन्य प्रकारसे प्रासुक हुए कन्द मूब अनन्तकाय मी जो कुचकाचे पदार्थ हैं उन सबकोअनशनीव (अम- (अनन्तजीवोंके भावास)तोबा, सचित्त-एक जीवसे क्य) समककर धीरमुनि भोजन खिये प्रहब नहीं शुक्क-मी नहीं रहते। फिर उनके सेवन-सम्बन्धमें हिंसा, करते हैं। दूसरी गायामें यह बतलाया है कि-ओबीज पाप, दोष तथा अभय-भषण जैसी कल्पनाएँ कर डालना रहित है, जिनका मध्यासार (जबभाग) निकल गया है कहाँ तक न्याय-संगत"इसे विवेकीजन स्वयं समक अथवा जो प्रामुक किये गये। ऐसे सब सानेक पदार्थों सकते हैं। (वनस्पतियों ) को मय सममाकर मुनि लोग भिसामें जैनसमाजमें कन्द-मूलादिका व्याग बड़ा ही विलक्षण ग्रहण करते है। रूप धारण किये हुए है। हल्दी, सोंठ तथा दवाई मादिक मूखाचारके इस संपूर्ण यन परसे यह बिल्कुल स्पर रूपमें सूखे कन्द-मूल तो प्रायः सभी गृहस्थ जाते हैं। हैऔर अनशनीय कन्द-मूलाका 'अनग्निपर्क' विशेष इस परन्तु अधिकांश भावक अभिपय तथा अन्य प्रकारसे बायको साफ बता रहा कि जैन मुनिकच्छन्द-मूख प्रासुक होते हुए भी गीले-हरे कन्दमूव नहीं खाते। ऐसे नहीं खाते, परन्तु अधिमें पकाकर शाक-माजीमादिके रूप खोगीका त्याग शाख-विहित मुनियोंके त्याचसे भी बड़ा में प्रस्तुत किए कन्द-मूब जम खा सकते हैं। दूसरी चढ़ा है!! बहुतसे श्रावक सिद्धान्त तथा नीति पर टीक गाचा प्रामुक (वित्त) किये हुए पदायाँको भी भोजनमें दसवीं प्रतिमा (दजें) तकके श्रावक गृहस्थ भावक' कहमारकर बनेका उनके लिये विधान किया गया है। लाते हैं। म्यारहवी प्रतिमाधारी श्रावकोंके लिये 'यहनो अपि अमिपक भी प्रासुक होते है, परन्तु प्रासुककी सीमा मुनिवनमित्वा' इत्यादि बास्यों द्वारा घर छोड़नेके विधान है।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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