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________________ किरण १०-११] गलती और गलतफहमी ३६१ रष्टिन रखते हुए स्वेच्छापे त्याग-प्रहाका मार्ग अंगीकार की निम्नगायाधीसे भी प्रकट है, जिनमें पहली गाथा करते है-अर्थात कितने ही लोग मूली तो खाते हैं परन्तु गोम्मटसारमें भी. १८५ पर पाई जाती है:उसका सजातीय पदार्य शलजम नहीं बाते, अद्रक और मूलगापोरबोजा कंदा तह खंघबीज-बीजरूहा। शकरकन्द तो खाते हैं परन्तु भालू गाजर नहीं खाते अथवा समुच्छिमा य भणिया पत्तया णंतकाया य॥२१२।। भालूको तो 'शामराज' कह कर खाते हैं परन्तु दूसरे कितने कंदा मूला छल्ली खंधं पत्तं पवाल-पुष्फ-फलं । ही कन्दमूल नहीं खाते! और अधिकांश श्रावक कन्द-मूल गुच्छा गुम्मा वल्ली तणारिण तह पव्व काया य ॥२१४|| को अनन्तकाय समझकर ही उनका त्याग करते हैं परन्तु ऐसी हालतमें कन्द-मूलों और दूसरी वनस्पतियों में अनन्तकायका ठीक विवेक नहीं रखते-प्रायः रूढि रिवाज अनन्तकायकीरटिसे मामतौरपर कोई विशेष भेद नहीं रहता।" अथवा रूदियों बना हुमा समाजका वातावरण ही उनका साथ ही, कन्द-भूलके त्यागियोंको चेतावनी देते हुए पथप्रदर्शन करता है। यह सब देख कर माजसे कोई लिखाया लिखा था: 'मतः जो लोग अनन्तकायकी रष्टिसेकोकन्द-मूबोंका २३ वर्ष पहले,२ भक्तबर १९२० को अपने ही सम्पादकत्व में प्रकाशित होनेवाले 'जैनहितैषी'के संयुक्ता नं.१.." त्याग करते हैं उन्हें इस विषयमें बहुत कुछ सावधान होने में, मैंने 'सासीय-पर्च' नामसे एक लेखमाला प्रारम्भ की की जरूरत है। उनका संपूर्ण त्याग विवेकको लिये हुए थी, जिसमें इस विषयपर दो लेख लिखे थे--(१)क्या होना चाहिये। अविवेक-पूर्वक जो त्याग किया जाता है वह मुनि कन्द-मूल खा सकते हैं, (२) क्या सभी कन्ध-मूल कायकाटके सिवाय किसी विशेष फलका दाता नहीं होगा। अनन्तकाय होते हैं। पहले लेखका अधिकांश विषय इस उन्हें कन्द-मूलोंके नाम पर ही भखकर सबको एकदम लेखमें भागया है। दूसरे लेखमें गोम्मटसार और मुजाचार अनन्तकाय न समझ लेना चाहिये; बक्किासपातकी जांच जैसे प्रामाणिक ग्रंथोंके माधार पर यह सिख किया गया करनी चाहिये कि कौन कौन कन्द-मूल अनन्तका और था कि-- कौन कौन अनन्तकाय नहीं है, किस कन्द-भूबका कौनसा समी "कन्द-मूल जगन्तकाय नहीं होते. न सर्वानस्पसे अषयव (अंग) अमन्तकाय और कौनसा अनन्तकाच ही अनम्तकाय होते हैं और न अपनी सारी अवस्थानों में नहीं है। साथ ही, यह भी देखना चाहिये कि किस किस मनन्तकाय रहते हैं। परिकवे प्रत्येक(एक जीवामित) अवस्थामें वे अनन्तकाय होते है और किस किस अवस्थामें और अनन्तकाय (साधारण) दोनों प्रकार होते है, किसी अनन्तकाय नहीं रहते। अनेक वनस्पतियों मिट मित्र देशों की बाब ही जनम्तकाय होती भीवरका भाग नहीं और की अपेक्षा जुवा जुका रंग. रूप, आकार, प्रकार और गुणकिसीका मीवरी भाग अनन्तकाय होतातोपाबत- स्वभावको बिचे हुए होती हैं बहुतों में वैज्ञानिक रीतिसे काय नहीं होती, कोई बाहर भीतर सर्वातसपसे अनन्याय अनेकप्रकार परिषन कर दिये जाते है।नाम-साम्यादिकी होता है और कोईससे बिज विपरीत कई अनन्त- वजहसे उन सबको एक ही बाठीसे नहीं होका जासकता। काय नहीं होता। इसी तरह एक अवस्थामें जो प्रत्येक मुले कंदेछली पवाल-साल-दल-कुसुम-फल-बीजे। वह दूसरी अवस्थामें चमन्तकाय हो जाता है, और जो समभंगे सदिणंना असमे सदिहोति पत्तेया ।। १८७॥ अनन्तकाय होता है वह प्रत्यक बन जाता है। प्रायः यही कंदस्व व मुलस्सव साला-खंघस्स बावि बहुलतरी। दशा दूसरी प्रकारकी बनस्पतियोंकी भी। ये भी प्रत्येक छल्नी सा तजिया पत्तेजिया तुतणुकदरी ।।२८॥ और अनन्तकाय दोनों प्रकारकी होती है-मागममें उनके बीजे जोशीभूदे जीवो चंकमदि सो व अपणो वा। खिये भी नवोनों मेबोका विधान किया गया जैसाकि जे वि य मूलादीया ते पत्तेया पढमदाए ॥१८॥ उपरके (मोम्मटसार)ी बायोसे ध्वनित और मूलाचार जैसे टमाटर और बैंगनको एक नहीं कहा जा सकता। + यहाँ गोम्मटसारके जिन वाक्योंकी ओर संकेत किया गया है गांभी' नामके कारण गांठगोभी और बन्दगोभीको फूलवे इस प्रकार है गोभीके समकक्ष नहीं रखा जा सकता।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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