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________________ ३३६ अनेकान्त [वर्ष ६ भूषावेष,युधत्यागि विद्यादमदयापरम् । केलिगो निउण जिणं तित्थपणामंच मग्गयो तस्स रूपमेव तवाचष्टे धीर दोषविनिग्रहम ।। ६४॥ -अावश्य०नि० गा०५५६ इसमें बतलाया है कि 'बडामें भाभूषणों, वेषों तथा नियुक्तिकारके सामने अब प्रश्न भाया कि केवली तो भायुधों-प्रवरात्रोंसे रहित और भाभ्यन्तरमें विद्या तथा कृतकृत्य हो चुके। वे क्योंतीयंकरको प्रणाम और प्रदक्षिणा इन्द्रिय निग्रहमें तत्पर भापका रूप ही भापके निदोषपने देगे? तो वे इस प्रश्नका समाधान करते हुये कहते हैं:को जाहिर करता- बाबमें भूषणों वेषों और मायु- तप्पुब्बिया परहया पूहयपूता य विणयकम्मं च। घोंपे सहित हैं और भाभ्यन्तरमें ज्ञान तथा इन्द्रियनिग्रहमें कयकियो वि जह कह कहए णमए तहा तित्थं ।। तत्पर नहीं हैं वे अवश्य सदोष हैं।' -आवश्य०नि० गा०५६० यहां समन्तभद्र शरीरपरके भूषणादिको स्पष्टतथा दोष लेकिन समन्तभद्र ऐसा नहीं कहते। वे कहते है बतमा रहे हैं और उनसे विरहित शरीरको ही दोषोंका कि जो हितैषी है--अपना हित गहते हैं, अभी जिनका विनिग्रहकर्ता दोषविजयी (निदोष) ठहराते हैं. अन्यथा पूरा हित सम्पत्र नहीं हुआ और इस जिये जो प्रकृत. नहीं। लेकिन भाभपनी परम्परानुसार भषयों द्वारा कृत्य है वे ही तीर्थकरकी स्तुति, वंदना प्रणामादि करते हैं। उनकी स्तुति करना बतलाते हैं और उनके शरीर पर भूषणों (१) 'भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः स्वयं० ६५ का सझाव मानते हैं। यह मतभेद भी नियुक्तिकार भद्रबाहु (१) 'स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधियः स्वहितैकतानाः । और स्वयंभस्तोत्रके कर्ता स्वामी समन्तभद्रके एक स्वयं० व्यक्ति होने में बाधक है। (३) 'स्वार्थनियतमनस: सुधियः प्रणति मंत्रमुखग महर्षयः।' स्वयं० १२४ (.) भद्रबाहु मुनिको 'कंबल' रूप उपचिका दान ऐसी दशा समन्तभद्र और भद्रबाहु दोनों एक नहीं करनेका विधान करते हैं और उससे उसी भवसे मोष जाने हो सकते। का उपेक्षा करते हैं: (१) मद्रबाहु बर्द्धमान तीर्थकरके तपःकर्म (सपा) तिल्लं तेगिच्छसुत्रो कंचलगं चंदणं च वाणियो। को तो सोपसर्ग प्रकट करते हैं किन्तु शेष तीर्थंकरोंके, जिन दाउँ भिणिक्खंतो तेणेव भवेण अंतगयो।। में पारवनाय भी हैं, सपः कर्मको निरुपसर्ग ही बतलाते हैं -आवश्यक नि० गा.१७४ सम्वेसिं तबोकम्मं निरुवसमग तु वरिणय जिणाणं । जबकि समम्तमद मुनिको उभय प्रन्यका त्यागी होना नवरं तु बद्धमाणस्स सोवसम्गं मुणेयव्वं ॥ ममिवार्य और चावश्यक बतखाते हैं. इसके बिना 'समाधि' -आचारा०नि०गा. २७६ -प्रारमध्यान नहीं बन सकता है। क्योंकि पासमें कोई ग्रंथ श्वेताम्बर मान्यता है कि भगवान महावीर कुंडग्राम होगा तो उसके संरपणादिमें चित बगा रहनेसे चारमध्यान से निकल कर अप दिन अस्त होते कार माम पहुंचे तो की भोर मनोयोग नहीं हो सकता। इसीलिये कहते वहाँ उन पर बड़े भयानक और बीभत्स्य स्पद्रव ६ उप सर्ग किये गये। भागमसूत्रोंमें भगवान महावीर पर हुये "ममाधितंत्रस्तदुपोपपतये द्वयेन नन्थ्यगुणेन वायुजन' १ तथा च किल कुंडयामान्मुहूर्तशेषे दिवमे कर्माग्ग्राममाप, __--स्वयंभू०१६ तत्र च भगवानित प्रारभ्य नानाविधाभिग्रहोपेतो घोरान् प्रांत--हे जिनेन्द्र !माप मारमध्याममें लीन हैं और रीपहोसनधिसामानो महासत्वतया म्लेच्छानप्युपशम उस मारमध्यानकी प्रासिलिये ही बार और भाभ्यन्तर नयन् द्वादशवर्षाणि साधिकान छमस्थो मौनव्रती तपश्च दोनों निर्मन्यता गुओंसे युक्त हुए हैं। कार' -शीलौकाचाटीका पृ.२७३। (१) नियुक्तिकार भद्रबाहु कहते किवली तीर्थकर २ देखो, आचारांगसूत्र पृ. २७३ से २८३, सत्र ४६ से. को प्रणाम करते हैं और तीन प्रदक्षिणा देते है:-- तक।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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