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________________ किरण १०-११] क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामो समन्भद्र एक हैं। ३३५ उसका निषेध करते हैं। और उनकी यह मान्यता स्वयंभू रखनेका उल्लेख करते है, जो श्वेताम्बरीय भाचारांगादि स्तोत्रकेही निम्न वाक्यसे और भी स्पष्ट होजाती है:-- मूत्रों के अनुकूल है। इतना ही नहीं पिंसनियुक्तिमें 'परसेय वपुर्भूपावेषव्यवधिरहितं शान्ति (शान्त) करणं- "चीरचोवणं चेव' (गा. २३) व प्रशासनका विधान, यतस्ते संचष्टे स्मग्शरविषातक विजयम् । उसके वर्षाकालको छोड़कर शेषकालमें धोनेके दोष और विना भीमैः शरदयहृदयामर्षविलयं 'वासासु अधोवणे दोसा' (पि.नि. २५) शब्दों द्वारा ततस्त्वं निहिः शरणममि नः शान्तिनिलयः ॥१२० अप्रचालनमें दोष भी बतलाते हैं। क्या यह भी समन्तभद्र इसमें नमिजिनकी स्तुति करते हुए बताया है कि को विवक्षित है? यदि हां. तो म्होंने जो यह प्रतिपादन हे भगवन् ! पापका शरीर भूषा-आभूषण; वेष भस्मा- किया है कि 'जिस साधुवर्गमें पल्प भी भारंभ होगा वहां छादनादिलिज और व्यवधि-वयमे रहित है, और वह अहिंसाका कदापि पूर्णपालन-निर्वाह नहीं हो सकताइस बातका सूचक है कि भापकी समस्त इन्द्रियां शान्त अहिंस रूप परम ब्रह्मकी सिद्धि नहीं हो सकती है' (न मा होचुकी हैं अथवा इसीलिये वह शान्तिका कर्ता है--लोग तत्रारम्भोऽस्यणुरपि यत्राश्रम विधी) बसके क्या प्रापके इस स्वाभाविक शरीरके यथाजात ननरूपको देखकर मायने हैं क्या उनके उक्त कथनका कुछ भी महत्व नहीं न तो वासनामय गगभावको प्राप्त होते है और न आपके है--और उनके 'मणु''पि' शब्दोंका प्रयोग या यों ही शरीरपर प्राभूषणादिके अभावको देखकर द्विष्ट, लुभित है किन्तु ऐसा नहीं है. इस बातको उमकी प्रकृति और अथवा खिम ही होते हैं, क्योंकि द्वेषलोमादिके कारणभूत प्रवृत्ति स्पष्ट बतलाती है, अन्यथा 'ततस्तसिदयर्थ परमश्राभरणादि हैं और वे आपके शरीरपर नहीं हैं अत: वे करुणो ग्रन्थमुभय' यह न कहते । इस मान्यताभेदमे मी मापके इस निर्मम प्रारंबराविहीन शरीरको देखकर भाप समन्तभद्र और महावाहु एक नहीं हो सकते-वेदाम्लवमें 'वीतरागतामय' शान्तिको प्राप्त करने हैं। और आपका यह भिन्न-भिन्न व्यक्ति और जुदी जुदी दो परम्पराम बनाविहीन शरीर कठोर प्रस-शस्त्रोंके बिना ही कामदेवपर हुए हैं। किये गये पूर्ण विजयको और निर्दयी क्रोधके प्रभावको भी (३) भद्रबाहुने सूत्रकृमा नियुकिम स्तुति निक्षेपके भले प्रकार प्रकट करता है।' चार भेद करके भागन्तुक (उपरमे परिचारित) भाभूषणोंक यहां विपक्षपावेषग्यवधिरहितं' और 'स्मरशरविषा- सिम 11तंकविजयं येदो पद बामनौरसे ध्यान देने योग्य हैं. जो बतलाते हैं कि जिनेन्द्रका वखादिसे अनाच्छादित अर्थात थुइणिक्वेवो चहा प्रागंतुधभूषणेहि दव्वथुई। नग्न शरीर है और वह कामदेवपर किये गये विजयको भावे संताग्ग गुणाण कित्तणा जे जहिं भगिया । घोषित करना है। अनन्न शागरमे कामदेवपर विजय प्राय: -मूत्र.नि. गा०८५ प्रकट नहीं हो सकती--वहां विकार (मिंगस्पंदनादि) छिपा यहां सायंका देखके शरीर पर माभूषण का विधान हुचा रह सकता है और विकारहेतु मिल नेपर उममें विकृति किया और कहा गया है कि जोभागन्तुक भूषणोप स्तुति (महास्वखन) पैदा होनेकी पूरी संभावना है। चुनांचे की जाती है वह व्यस्तुति है और विद्यमान यथायोग्य भूषाविहीन जिनेन्द्र का शरीर इस बातका प्रतीक है कि वहां गुणोंका कीर्तन करना भावस्तुनि । लेकिन समन्तभा कामरूप मोह महीं रहा, हमी लिये समन्तभद्रमे स्वयंभूस्तोत्रमें इससे विदा करते है और तीर्थकरके 'ततस्त्वं निमोह' शब्दोंके द्वारा जिनेन्द्रको निर्मोह' कहा शरीरकी भाभूषण, वेष और उपधि रहित रूपमे ही स्तुति है। ऐसी हालसमें यह स्पष्ट है कि समन्तभद्र जिनेन्द्रोंको करते. या कि पोंबित करते हैं जैसा कि पूर्वोझिखित 'वपुभूपावेषम्यधिरहित - वसादिरहित बरसाते हैं और भद्रबाहु उनके एक इसके वाक्यले स्पाइसी स्वयंभूस्तोत्रमें एक दूसरी जगह 'पत्ते धोवणकाले उति नामामए माहू' पिड न. २८ भीतीर्थकरोंकी भाभूषणादि-रहिस रूपये ही स्तुति की गई 'चासामु अघोरणे दासा। पिंडांन० २५ और उनके रूपको भूषणाविहीन प्रकट किया
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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