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________________ नयों का विश्लेषण ३४१ प्रस्थापित करना ही था, इसलिये इस उद्देश्यकी पूर्तिके विरोधी होनेके कारया अनुचित या अशुभ प्रवृत्ति कहते हैं। लिये और माथ ही अपना इस खोजको सर्वाङ्गीणा बनानेके प्रेमी प्रवृत्ति करने वाले प्राणी हमेशा करता, निर्दयता, लिये प्रास्माको संसार और मुक्तिकी विज्ञानपूर्ण व्यवस्थामै अहंकार, धूर्तता स्वार्थ नीलुपता, उच्चजलता और कृतप्रसा गूधनेका सफज प्रयत्न करके प्रारमाके इन दोनों पहलुओं आदि दुगुणोंके शिकार हा करते है और इनका लक्ष्य के आधारपर ही उन्होंने धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप और नीति- दमको उत्पीडित करके अपना स्वार्थ सिद्ध करना ही अनीतिक रूपमें मानवसमाजके कर्तव्य-श्रवर्तव्यका विवंचन रहता है । जैनधर्ममें ऐसे प्राणियोंको बडिगामा नाम दिया किया था। यह विवेचन इतना प्रभावपूर्ण और आकर्षक गया है। प्राणियों द्वारा दूसरे प्राणियोंके सुख-दु.खका ध्यान था कि अनारमवादी तर्कशास्त्रियान भी मानवसमाजमें रखते हुए अपने जीवनको सुखी बनानका जो प्रयत्न किया व्यवस्था कायम करने के लिये "जियो और जीने दो" के जाना है से प्रयत्नको लोकहितका विरोधी न होनेके कारया सिद्धान्तको प्रानाना ठीक समझा था और उसीका यह उचिन या शुभ प्रवृत्ति कहते हैं। इस प्रवृत्तिको करने वाले परिणाम है कि भारतवर्ष आज भी दुनियाकी निगाहमें प्राणी अपने जीवनको सुम्सी बनाने के लिये कभी भी दूसरे अध्यात्मप्रधान देश माना जाता है। दया, क्षमा, परोपकार, प्राणियोंको उत्पीडित नहीं करते हैं; बल्कि वे अपनी माको गुणज्ञता, कृतजना, हार्दिक सहानुभूति श्रादि आध्यात्मि- हायोंको दबाकर अपने जीवनको ही संमित बनानेका कताके ही प्रकाशमय अंश है। यद्यपि बाहिरी कालिमाने प्रयत्न करते रहते हैं। जैन धर्ममें से प्रागिन को अन्तराभारतवर्षकी इस आध्यात्मिक विभूतिको बहुत कुछ विकृत रमा नाम दिया गया है। तथा नष्ट-भृष्ट कर दिया फिर भी इसका संस्कार भारतवर्षपर इस विषय में जैनधर्मकी मान्यता यह है कि-मायक इतनीहड़ताके साथ जमा हुश्रा है कि समय-मयपर उसका प्राणीके शरीरके साथ प्रात्मा नामकी नित्य बस्तुका सम्बन्ध प्रकाश अवश्य ही चमक उठना है। बंगाल तथा अन्य है और वह श्रात्मा नामकी वस्नु खानमें पड़े हुए विकृत प्रान्तोंके दर्दनाक हायसंकटके इस मौकेपर उसका प्रक्ट सुवर्ण के समान अनादि कालय विकृत हो रहा है। एक तेज ही अखीन महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है. जो स्वार्थी और वस्तुके स्वभाव प्रतिकूल वस्तुक मिधगास होने वाली निर्दयी दुनियाके लोगोंको यह संकेत है कि श्रमसमें तुम्हें तबदीका नाम विकार है । सुवर्णको खानसे बाहिर भी अपने जीवनको मुखी बनानके लिये इसीकी शरण लेनी निकालनेपर उममें मौद विचारका कारण पापागादिका पदेगी, नहीं तो इसके बिना तुम लोग मर मिटोगे और सम्बन्ध र मालूम पड़ने लगता है, इसीलिये लाकमें दुनियामें तुम्हारे नामका निशान तक न रहेगा। सुवर्णको शुद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है। थारमाम भी उल्लिखित भारमतत्वकी खोजका एक फल जैनधर्म भी विकारका कारण प्रतिकुल वस्नुका संबंध जिमे जैनधर्म कर्महै। इसलिये जैनधर्ममें भी भाग्माको स्वीकार करते हुये इस संज्ञा दी गयी है, अनादि कारसे स्वीकार किया गया के बारे में संसार और मुक्तिको व्यवस्था बतलाई गयी है। है। लोक प्राणियोंकी उल्लिखित शुभ-अशुभ प्रवृत्ति में तात्पर्य यह है, कि लोकके प्राणी अपनी-अपनी आकांक्षाक कारणभून बाह्य पदार्थोंमें होने वाली शनि और घृणा हमी अनुसार अपने जीवनको मुखी बनाने के लिये बाहा पदार्थों प्रतिकूल वस्नु अर्थात् कमके सम्बन्ध पैदा होने वाले में प्रीति और वृणाके प्राधारपर प्रवृत्ति करते हुए देखे जाने श्राःमाके विकारका ही परिणाम समझना चाहिये । इस हैं। इनकी यह प्रवृत्ति अनुचित अर्थात लोकहितके विरुद्ध विकारको जैनधर्ममें राग और द्वेष नाम दिये गये हैं। राग और उचित प्रधान लोकहितके विरुद्ध हुमा करती है। बाह्य पदार्थोंमें होने वाली प्रीतिका कारण है श्रीर द्वेप दुनियाके कतिपय प्राणियों द्वारा अपने जीवनको सुखी _ वाद्यपदार्थों में होने वाली घृगााका कारण है। इस तरह में बनाने के लिये शक्तिके आधारपर दूसरे प्राणियोंके ऊर लोकके प्राणी गगके वशीभूत होकर दुनियाके अभीष्ट पदार्थों अन्याय और अत्याचार करके उनके सुखी जीवनको नष्ट को अपनानेकी चेष्टा किया करते हैं और द्वेषके वशीभूत करनेका जो प्रयत्न किया जाता है उस प्रयत्नको लोकहितका होकर वे दुनिया अपने लिये अनिष्ट पदार्थाकी अपनेसे
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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