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________________ २६६ अनेकान्त [वर्ष ६ धपु षा-वेष-व्यवधिरहितं शान्तकरणं, यतम्तै संचष्टे स्मरशरविषान्तक विजयम्। विना भीमः शस्त्रैरदयहृदयामर्षविलयं, ततस्त्वं निर्मोहः शरणामसि नः शान्तिनिलयः॥५॥ '( हे नाम-जिन !) आभूषण, वेष तथा व्यवधान (वन-प्रावरणादि) से रहित और इन्द्रियोंकी शान्तताको-अपने अपने विषयों में वांछाकी निवृत्तिको-लिये हुए आपका नग्न दिगम्बर शरीर चूंकि यह बतलाता है कि आपने कामदेवके याणोंके विषस होने वाली चित्तको पीडा अथवा अप्रतीकार व्याधिको जीता है और बिना भयंकर शाखोंके ही निर्दयहृदय क्रोधका विनाश किया है इस लिग आप निर्माह हैं और शान्ति-सुखके स्थान हैं अतः हमारे शरण्य हैं-हम भी निर्मोह दाना और शामिग्वको प्राप्त करना चाहते हैं, इमसि हमने श्रापकी शरण ली है।' तीर्थङ्कर क्षत्रिय हो क्यों ? (लेखक-श्री कर्मानन्द) वर्तमान समय में जैनधर्मके प्रवर्तक २४ तीर्थकर होकर कहने लगे कि इस राजान हमाग अपमान माने जाते हैं। वे सभी क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए हैं। किया है। राजा जनक बहाँसे चले गये। उन ब्राह्मणोंयहां यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ये तीर्थकर क्षत्रिय- मेंसे याज्ञवल्क्यने उनका पीछा किया और अपनी कुलमें ही क्यों उत्पन्न हुए ? इसका उत्तर हमें इति- शंका निवारण की । तभीसे राजा जनक ब्राह्मण हामसे मिलता है। इतिहासका पालोचन करनेसे कहलाने लगे (शतपथ १०६।२१) । यही याज्ञवल्क्य पता चलता है कि पूर्व समयमें आत्म-विद्या केवल ऋषि यजुर्वेदके संकलनकर्ता तथा प्रसिद्ध महाविद्वान क्षत्रियों के पास ही थी, ब्राह्मण लोग इससे नितान्त कहे जाते हैं। उपरोक्त गाथासे यह ध्वनित होता है अनभिज्ञ थे, ब्राझणोंने क्षत्रियोंकी सेवा करके एवं कि क्षत्रिय लोग आत्म-विद्याके ही पारगामी नहीं थे शिष्य बनकर यह आत्मविद्या प्राप्त की है । चुनॉचे अपितु यज्ञ आदि विषयोंके भी अद्वितीय विद्वान थे। बृहदारण्यकोपनिषद् ११३१ में लिखा है कि महाराज जिनसे याज्ञवल्क्य जैसे महर्षियोंने भी शिक्षा प्राप्त जनकका प्रताप इतना फैल गया था कि काशीराज की थी। अजातशत्रने निराश होकर कहा कि "सचमुच सब छान्दोग्योपनिषद ५-३ में लिखा है कि एक लोग यह कहकर भागे जाते हैं कि हमारा रक्षक समय श्वेतकेतु पारुणेय पांचालोंकी एक सभामें गया जनक है"। यह अजातशत्रु स्वयं भी अध्यात्म-विद्या तो प्रवाहन-जयबलीने जो क्षत्रिय था, उमसे कुछ का महान् विद्वान् और तत्ववेत्ता था। शतपथब्राह्मण प्रश्न किये। परन्तु वह एकका भी उत्तर न दे सका। में लिखा है कि जनककी भेंट ऐसे तीन ब्राहाणोंसे उसने उदास-भावसे घर आकर अपने पितासे उन हुई । जनकने उनसे अग्निहोत्र-विषयक प्रश्न किया, प्रश्नोंका हाल कहा । उसका पिता गौतम भी उन प्रभों परन्तु ग्राहक्षण उसका ठीक उत्तर न दे सके । जनकने को न समझ सका, वे दोनों उस प्रवाहन-जयबलीके. जब उनके उत्तरमें भूल बताई तो ब्राह्मण क्रोधित पास गये और उनके शिष्य बन कर उस आत्म-विद्याको
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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