SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पथ-विम्ह नया बम है, xxx 'जैनहितैषी' में भी पिछले कई वर्षों में श्राप १९१६ के लगभग प्रत्थरीक्षाके दो भाग प्रकाशिन बराबर लिखते रहे हैं। इस कारण हमारे पाठक सापकी हुए। यह परम्पगगत संस्कारों पर कड़ा कशापात था। योग्यतासे भलीभांति परिचित है। आप बड़े ही विचारशील अनेक विद्वान इससे तिलमिला उठे और उन्होंने पण्डित लेखक। श्रापकी कलमसे कोई कबी बान नहीं निकलना। जोको धर्मद्राहीकी उपाधि दी। भोली जनता भी इस प्रवाह जो लिखत है वह सप्रमाण और सुनिबत । आपका बह गई पर श्राप चुपचाप अपने काम में लगे रहे और अपने अध्ययन और अध्यक्षमाय बहुत बढ़ा है।xxx 'जेंन गभर अध्ययनके बल पर श्राग्ने एक नया बम पटका हितैषाका सौभाग्य है कि वह ऐसे सुयोग्य सम्पादकाथ दिया-जैनाचार्यों तथा जेनतीर्थकगेंमें शासन भेद ! श्राप में जा रहा है।" की इम लेम्बमालासे कोहराम मच गया । यदि जैनाचार्यों में पं. जुगलकिशोरजीने भी 'जैन-हितैषी का सम्पादन' परस्पर गतभेद मान लिया जाए, तो फिर आपकी वह स्था- शीर्षकसे इस अंकमें एक टिप्पणी लिखी, जिसमें प्रारम्भम पना प्रमाणित हो जाती थी कि वीरशासन (जैनधर्म ) का प्रेमी जीके आग्रह पर उन्हें कैसे यह सम्पादनभार ग्रहण प्राप्त रूप एकान्त मौलिक नहीं है। उममें बहुत कुछ करना पड़ा, यह बतानेके बाद . पनी नीतिक सम्बन्धमें मिश्रण हुआ है और उसके संशोधनकी आवश्यकता है। लिखा है- 'मैं कहां तक इस भारको उठा सगा और इसके विरुद्ध भी उछल कद तो बहुत हई, पर पापडतजीकी कहाँ तक जेन हितेषीकी चिरपालिन कीतिको सुरक्षित रख स्थापनाएं अटल ही रहीं, कोई उनके विरुद्ध प्रमाण न सगा इस विषयमें मैं अभी एक शब्द भी करनेके लिये ला सका। तैयार नहीं हूँ और न कुछ कह ही सकता है। यह सब मेरे अखण्ड भात्मविश्वास स्वास्थ्य और विश पाठकोंकी सहायता, सहकारिता और उत्साह वृद्धि प्रादि पर अवलम्बिन १६२. में श्रापकी कविताओंकासंकलन 'वीरपुष्पांजलि' । परन्तु बहुन नम्रताके साथ, इतना जरूर कहूँगा कि मैं अपनी शक्ति के नाम छग। तब श्राप सपाजके घोर विरोधका मुकाबला कर रहे थे. पर अपनी स्थापनाओंकी अकाट्यता और और ग्यता अनुसार, अग्ने पाठकोंकी सेवा करने और जैन हितैषीको उन्नत तथा सार्थक बनाने में कोई बात उठा विरोधियों की कारमें श्रापका कितना अभंग विश्वास था, नहीं रक्खूगा।" यह आपकी निम्न ४ पक्तियोंसे स्पष्ट है, जो 'वीर 'पुष्पांजलि' _ 'जैनहितैषी' का सम्पादन आपने १८२१ तक दो वर्ष के मुखपृष्ठ पर छपी थीं किया। "सत्य समान कटर, न्यायसम पक्ष-विहीन, महान कार्यहूँगा मैं परिहास रहिन, कूटोक्ति क्षीण। १९२८ में 'ग्रन्थ परीक्षा का तीसरा भाग प्रकाशित नहीं करूंगा क्षमा, इंचभरं नहीं टलूंगा, हुधा । इसकी भूमिकामें भी नाथूराम प्रेमीने लिखातो भी हुँगा, मान्य. ग्राहा, अदेय बनूंगा।" "मुख्नार साहबने इन लेखोंको, विशेषकर सोमसेन त्रिवर्णापहली तीन पंक्तियों में उन्होंने अपने स्वभावका फोटो चारकी परीक्षाको, कितने परिश्रमसे लिखा है और या उन देदिया है और पावरीमें अपने ग्राम विश्वासका-अक्ष- की कितनी बड़ी तपस्याका फल है, यह बुद्धिमान पाठक रशः यथार्थ! इसके कुछ ही पृष्ठ पढ़ कर जान लेंगे। मैं नहीं जानता हूँ फिर सम्पादक कि पिछले का मौ वर्षों में किसी भी जैन विद्वानने कोई इस अक्टुबर १९१९ में श्री नाथूराम 'प्रेमी ने भाग्रह प्रकारका समालोचक प्रन्थ इतने परिश्रमसे लिखा होगा करके उन्हें जैनहितैषीका सम्पादक बनाया और अपने और यह बात तो बिना किसी हिचकिचाइटके कहीं ना 'प्रारम्भिक वक्तव्य' में कहा सकती है कि इस प्रकारके परीक्षा लेख जैनसाहित्यमें सबसे "बाबू जुगलकिशोरजी, जैनसमाजके सुपरिचित लेखक पहले है।"
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy