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________________ १५६ अनेकान्त [वर्ष ६. ८सितम्बर १९०७ के अमलेखमें यह प्रवृत्ति और स्पष्ट हुई त्यागके पथपरजो सम्मेदशिखर तीर्थक सम्बन्ध में लिखा गया था। यह गम्भीर अध्ययन प्रापके जीवनपर भी अपनी गंभीर सफल सम्पादक छाप गलता गया और अब वह मुस्तारकारी प्रापको भार प्रायके सजीव सम्पादनको जनताने पसन्द किया और होने लगी। जीवनका बहुमूल्य समय जीविकामें लगाकर 'जेनगजट' की प्राहकसंख्या ३.० से १५०० हो गई। फालतू समयमें अनुसंधान या समाजसेवाका कार्य किया श्री नाथूगमजी प्रेमीने इसके १० वर्ष बाद 'जैनहितेषी' का जाये, यह आपके लिये अब असम होचला और आप बाबू सम्पादन मुख्तार साइबको सौंपते समय लिखा था- वे सूरजभानजीसे बार-बार यह तकावा करने लगे कि दोनों कई वर्ष नक जैनगजट' का बड़ी योग्यताके साथ सम्पादन वकालन छोड़कर सारे समय अनुसंधान और समाज-सेवामें कर चुके हैं। उनके सम्पादकत्वमें 'जैनगजट' चमक उठा लगे। जब-तब श्राप बाबूजी पर यह तकाका करने लगे। था।" प्रेमीजी जैसे विद्वानके मनपर १० वर्ष बाद तक एक दिन शामको धूमते समय बाबूजीने कहा-अच्छा उनके रस सम्पादनकीछाप रही, यह पर्याप्त महत्व-सूचक। तुम रोज कहते हो, तो आज रानमें गम्भीरतासे सोच लो. 'जैनगजट' के सम्पादकत्वसे भागने क्यों त्यागपत्र दिया, कल अन्तिम निर्णय करेंगे। दूसरे दिन प्रात:काल श्राप ठीक मालूम नहीं। २४ दिसम्बरके अंक में मोटे टाइपमें यह बाबूजीके घर पहुंचे और अपना निर्णय उन्हें बनाया। सूचना प्रापने दी है कि ३१ दिसम्बर के बाद हम काम नहीं फलन: १२ फरवरी १९१४ को बाबू सूरजभान ने अपनी करेंगे, यह इम अधिकारियोंको बार-बार लिख चुके हैं। इस वकालत और पं. जुगल किशोरजीने अपनी मुख्तारी छोड़ सूचनामें कुछ ऐसी ध्वनि है कि अधिकारियोस श्रापका दी। आप दोनों ही उम समय देवबन्दके प्रमुख 'लीगल सम्भवत: कुछ मतभेद था। प्रेक्टिशनर' थे, इस लिये श्राप लोगों के भीतर समाज-सेवा भट्टारकोंके दुर्गपर का जो अन्तर्द्वन्द चल रहा था, उससे अपरिचित होनेके 'जैन गजट' के सम्पादनसे जो समय बचा, उसे अापने कारण लोगोंको इससे बहुत प्राचर्य हुश्रा। जैन साहित्यके गम्भीर अध्ययन में लगाया । आपके जीवन में सापनाका 'मैनीफेस्टो'व्यावहारिक प्रादर्शकी प्रवृत्ति थी-पाप समाजको मिस यह अन्तद्वन्द मुख्तारकारी छोड़ने के बाद लिस्वी उस . ढोंगहीन सालिक रूपमें ढालनेका आन्दोलन करते थे, उस कवितामें प्रकट हुश्रा, जो 'मेरी भावना' के नामसे प्रसिद्ध में अपना दलना सबसे पहले आवश्यक समझते थे। जैन है। यह कविता पुस्तिका रूपमें अभीतक २० लाख छप धर्मकी दृष्टिमें आदर्श ग्रहस्थका स्या रूप है, इसका अध्ययन चुकी है और इसका अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू. गुजराती, मराठी, आपने इसी रष्टिसे प्रारम्भ किया। आपका विचार था कि कन्नड भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यूरोपकी राजनैतिक इसके अध्ययनके फलस्वरूप एक पुस्तक लिखेंगे। वह पुस्तक पार्टियोके चुनाव मैनीफेस्टोकी तरह यह मुख्तार साहबकी तो आज तक न लिखी गई, पर एक अत्यन्त महत्वपूर्ण जीवन साधनाका मैनीफैस्टो घोषणापत्र) थी। अनेक प्रांतों बात यह हुई कि श्रापका ध्यान इस बातपर गया कि जैन के डिस्ट्रिक्ट और म्यू. के स्कूलोमें. तथा कारखानोमें यह शानोंमें भरकोने जैनधर्मके विरुद्ध बहुतसा अएट-सएट सामूहिक प्रार्थनाके रूपमें प्रचलित है और जैनसमाज में तो पर-उधरसे लाकर मिला दिया है जिससे जैनधर्मकी मूल- पं. जुगलकिशोर और मेगभावना एक ही चीनके दो नाम परम्पराका विकृतरूपमें हमें दर्शन मिलता है। इस प्रक्षिप्त समझ जाते हैं। हजारों परिवारों में उसका नित्यपाठोता है अंशकी ओर पहले शायद विद्वानोंका ध्यान गया होगा, और जैन उत्सवोंकी प्रारम्भिक प्रार्थनाके लिये तो वह पर आपने यह मौलिक खोज प्रारम्भ की कि यह प्रक्षित पेटेन्ट ही हो गई है। उसके प्रचार, प्रकाशनका हिन्दीमें अंश कहाँसे लिया गया है बादमें यही खोज 'प्रन्थपरीक्षा' एक अपना ही रिकार्ड है।यह कविता सबसे पहले जैनहितैषी' नामक पुस्तकके चार भागोमें प्रकाशित हुई। अप्रल-मई १९६के संयुक्तांकमें छपी थी।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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