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________________ अनेकान्त [ वर्ष ६ अन्धश्रद्धा पराजित हुई-आज उन विरोधियोंके वंश- क्यों? उन्होंने जान बूझकर, अपनेको प्रसिद्धि से धर छपे हुए “शास्तरजी"का पाठकर कृतार्थ होरहे हैं। बचाया। जैन संस्थाओं के वे पादिसंस्थापक, पर एक वाक्यमें बायू सूरजभानका स्कैच है-अँधेरा संस्था बन गई, चल गई और दूसरोंको सौंप दी। देखते ही दिया जलानेको तैयार ! उन्होंने अंधेरा किसी संस्थाक साथ उन्होंने अपनेको नहीं बाँधा। देखा और दीपक संजोने चले। अन्धेरा, अज्ञानका, हमारे देशमें धर्मसुधारक आगे चलकर एक नये धर्म अन्यायका और दीपक ज्ञानका, सुधारका । उन्होंने के संस्थापक होजाते हैं। बाबू सरजभानने अपनेको व्याख्यान दिये, लेख लिखे, पुस्तकें तैयार की और इस.महन्ताईस, नेतागिरीस सदा बचाया और महिमा संस्थाएं खोलीं, पर सबका उद्देश्य एक है, अन्घेरेके के माधुर्यमे निन्दाका नमकीन ही सदा उन्हें रुचिकर विरुद्ध युद्ध! वे अनथक योद्धा हैं। न थकनाही जैसे रहा। हम मरनेके बाद भी जीने के लिये पत्थरोंपर उनका 'मोटो' हो। इस बुढ़ापेमें भी वीर-सेवा-मन्दिर नाम खदानको बेचैन हैं, उन्होंने जीतेजी ही अपनेको (सरसावा, सहारनपुर) में जाकर रहे, दो घण्टे कन्या बेनाम रहकर जैसे अमरत्वका रस लिया। पाठशालाके अध्यापक, दो घण्टे शास्त्रस्वाध्यायके यह अपरिग्रह, यह अलगाव, अपना श्रेय दूसरों पण्डितजी, और ४-६ घण्टे गम्भीर अध्ययन और ___ को बाँटनेकी यह वृत्ति ही बाबू सूरजभान है। वे अपनी खोजोंपर लेख, यह एक ७२ वर्षके वृद्धको महान हैं और सदैव इतिहासक एक पृष्ठकी तरह वहाँ दिनचर्या थी। महान रहेंगे, पर जैनसमाज संगठितरूपसे उनकी अष - भारतकी नवीन राजनीतिमें दादा भाई नौरोजी हीरक जयन्ती मनाए, इसी में उसकी शोभा है । यह और हिन्दी गद्यके नवविकासमें प्रेमचन्दका जो स्थान उत्सव उनकी जीवनी शक्तिका प्रमाण हो और बाबू है. जैन समाजको नवचेतनाक इतिहासमै वही स्थान सूरजभानके बोए और अपने रक्तसे सींचे सुधारबाब सूरजभामका है। जैन समाजकै वे ईश्वरचन्द्र बीजोंकी प्रदर्शिनी भी, यह आज के युगकी माँग है। है. इसमें सन्देह नहीं, पर अजैन समाजकी कौन कहे, क्या हम इसे मनेंगे। जैन समाजमें ही लोग उन्हें ठीक २ नहीं जान पाये। उपहार-ग्रन्थ __ 'अनेकान्त' के उपहारमें देनेके लिये हमें दिगम्बर जैनसमाज डूंगरपुरकी तरफसे 'लघुशान्तिसुधासिन्धु' ग्रंथकी ५०० प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं, जिमके लिये उक्त समाज विशेष धन्यवादका पात्र है और + उसका यह कार्य दूसरों के लिये अनुकरणीय है। मूल ग्रंथ संस्कृतमें प्राचार्य श्रीकुन्थुसागरजीका रचा हुआ है। साथमें पंजिका नामकी संस्कृत टीका लगी है, हिन्दी अर्थ और विशेषार्थ तथा अंग्रेजी अनुबाद भी दिया हुआ है। अतः जिन ग्राहकोंको आवश्यकता हो वे पोहेज खर्च के लिये निम्न पतेपर एक थाना भेजकर उसे मँगा लेवें। उन ५०० ग्राहकोंको ही हम यह ग्रंथ दे सकेंगे जिनकी माँग पोष्टेज खर्चके साथ पहले पाएगी। व्यवस्थापक 'अनेकान्त'बीरसेवामन्दिर, सरसावा जि. सहारनपुर
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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