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| कहानी
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(ले.-प्राचार्य पं. जगदीशचंद्र)
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मा
को आज भी चैन नहीं था । उन्होंने माधवकी माँ माधवको कालेज छोड़ते ही घरकी चिन्ताओंने दुगोंको पुकार कर कहा-अजी सुनती हो न? तुम्हारे श्रा घेरा । एम०ए०की कठिन पाठ्य-प्रणाली में परि- लल्लाको तो रैनाल्ड और गोटेकी काव्य-नायिकाओं के श्रम करते २ माधवके मस्तिष्ककी नसें ढीली होगई अंगन्यासमें फिलोम्फीकी गवेषणा करते २ घोरनिद्रा थीं। सारा वीर्य, सारा ओज, मैथमेटिक्स और आ गई है। और उसी में यह सारा कुटुम्ब अपनी जामेट्रीकी टेढ़ी-मेढ़ी लाइनोंको क्रमबद्ध करने में ही असीम दरिद्रता लेकर जा छुपा हे! जरा मेरी पोथीसमाप्त हो चुका था। आज बड़ी कठिनतासे बेचारे पत्रा तो निकाल ला दो मुझसे तो इस प्रलयमें भी ग़रीबन, अनेक दुर्बलताओंके साथ साथ एक कागज शान्तिपूर्वक बैठा न जा सकेगा। के नन्हेंस टुकड़ेपर अपनी अगाध विद्वत्ताका प्रमाण
दुर्गाका मन पतिकी कातरतापर सौ २ बार पति पत्र प्राप्त किया था।
होने.लगा । उसने कहा-माधव तो सुशिक्षित है, उसने सोचा था कि अब जीवनकी कठिनाइयाँ जरा उसे भली भाँति चेता दीजिये। उसके साधारण पार कर चुका हूँ-शीघ्र ही किसी उकच पदपर जा परिश्रमसे ही आपको निश्चिन्तता मिल सकेगी। वैदूंगा, फिर स्वास्थ्य और प्रतिष्ठाके साथ साथ रुपयों
मेरे बशका रोग है नहीं रानी! तुम्ही कर देखो, के ढेर के ढेर मेरे चरणोंमें लुढ़का करेंगे।
मैं तो कह सुनकर हार गया । किन्तु लगभग दो वर्ष तक घरके आँगनमें
दुर्गाने दुलारसे कहा-पाज न जानेसे भी काम प्रतीक्षा करनेके बाद भी जब भाग्यानुमान सत्य न
चल सकेगा? चल सकेगा कैसे, मेरी भाग्यलक्ष्मी !
जानती हो सेठजी कितने कृपालु हैं, उनकी आज्ञा हवा तो घरवालोंने उसे परेशान कर डाला। उसके विशाल मस्तिष्कमें कुछ दिन तक यह समाया
उल्लंघन करनेसे पहिले तो इस भारी कुटुम्बको विष ही नहीं; कि घरवाले क्यों मेरे पीछे पड़े हैं ?
दे देना होगा।
दुखी हृदयसे दुर्गाने एंडितजीका पोथी पत्रा दे __ ग्रामीण पिता जब उसके पास आकर बैठते तब लिया
दिया । बूढे बालकराम दारिद्र पीड़ाके आवेशमें तूफान अपनी बेवसी और तंगदस्तीके वर्णनमें ही अपनी सरीखे हवा पानीसे टकराते हुए अग्रसर हुए। ममताका व्याख्यान करते।
( २ ) माधवका मन इन बेमतलबकी बातोंसे ऊब जाता। मोहन, माधवकी छोटी श्रेणीमें सहपाठी रहा था। अन्ततः यह सोचकर कि पिताजी दो चार संस्कृतके किन्तु बीच हीमें उसने पराधीन देशकी शिक्षाको श्लोक रटकर किसी प्रकार अपना धंधा चला रहे हैं। जीवनोपयोगी न जानकर मस्तक नवा दिया था। उन्हें एम० ए० की फिलास्फीका क्या ज्ञान, अपनी माधवके कालेजमें प्रवेश करते ही उसने थोड़ी सी अधीरता छुपानी पड़ती।
पूँजीसे एक गौ शाला स्थापित कर दी थी । दो तीन
साल लगातार नुकसान उठाकर भी अपने धैर्य और बरसातकी हवा, झंझाके झटकोंकी भाँति, ग्राम्य परिश्रमके बलपर उसने उसे एक बृहत्तर रूप दे दिया पादपोंको झकझोर कर रही थी। ऊँचे श्रासमानसे था। उसकी गौशालामें आज कल २०० गाएँ और पृथ्वीकी असीम करुणा संचित होकर मेघ मालाके १५० भैंसें थी । इलाहाबाद जैसे विशाल नगरमें उस मिस जोर जोरसे बरस रही थी। सभी दुबक कर के दूधकी खपत इतनी थी कि प्रतिदिन उसपर दूधकी घरमें बैठे थे। किन्तु माधवके पिता पं.बालकराम माँग बनी ही रहती थी। स्वच्छ, जलविहीन दूध और