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________________ कर्म-वीर (ले०-बा. महावीरप्रमाद जैन. बी० ए० एल. एल. बी.) तारों की छायामें तड़के ही उठ, विजली जला, मिरको दुलकाये, विलासताकी गोदमें संज्ञा-हीन, मैं मेज पर पड़े सम्पादकजी के तीन-चार आग्रह-पूर्ण कर्तव्यम दूर, रंगरेलियों के समीप, ऊपर बतपर लगे पत्रों को देखने लगा। हर एक पत्रमें कहानी भेजने धीमे नीले वल्वकी विद्रूपसे भरी मुस्कराहटसे अनका तकाजा था । पर कहानी थी कहाँ ? बहुत दिमारा भिज्ञ, वर्ग ले रहे थे ! लड़ानेपर भी मुझे कोई साट नहीं सूझ रहा था । दो पूर्वाकाश एकदम लाल हो उठा था । सूर्य नित्य तीन सप्ताहसे यही कशमकश जारी थी । किन्तु जैस की भाँति अपने असंख्य हाथों में किरणों के हल लिये दिमाराका खेल बिलकुल बँजर पड़ा हो! आकाश-खेतको जोतने अग्रसर होरहा था। प्रकाश इस। धुन में लोटा ले मैं छतपर चढ़ गया । शौच- का वह किसान !! गृहसे निकल, यकायक मेरी दृष्टि पूर्वकी ओर आकाश पर जा पड़ी । मैं स्तब्ध, लोटा लिये ज्यों का त्यों उसी दिनकी दोपहरीखड़ा रह गया । आकाश चमक रहा था। सूर्यके प्रखर-प्रतापक आकाशपर कहीं कहीं कोई हल्का सा बादलका सामने अांखें नहीं उठाई जाती थीं। वह महा-विजेता टुकड़ा इधर उधर घूम रहा था । गहरा नीला तहखानों के बंद द्वारोंकी झीरियों तकसे प्रकाशकी आकाश। एक-दो फीकी मी हँसी हुमते हुये तारे । और पूर्व में उषाको गोदमें बाल-रवि मुषा और छुरियां घुसेड़कर अन्धकार-शत्रुका नाश कर रहा था। सौन्दर्य चारों ओर बखेरता हुआ शुभ-भाग्य की नाई प्रत्येक ओर व्यस्तता थी। पसीना था । धुन थी। उदय होरहा था। धुनमें मस्ती थी । सब लगे हुये थे । कोई नालीन था। ___ कानों में टुन-टुनकी प्यारी आवाज आई। नीचे फुर्ती पर चहल पहलके इस ज्वारक बीच हमारे सड़क परम बल खेतों की ओर जा रहे थे । तड़के संठजी दोपहरका कई गरि पदार्थोसे युक्त भोजन की गुलाची सका आनन्द लेता हुआ, गाढ़ेकी माटी करके, जिन्हें पचानेम सर्वथा असमर्थ मेदा लिये वह दोहरस निकले एक हाथमें हुक्का और दूसरे में बलों पाराम कुर्सी पर भारा-फ्रान्तस पसरे पड़े थे । सामने की रस्मी लिये किसान 'कँवर निहाल के सांगकी मेजपर रेडियो मधुर संगीतकी लहरें छोड़ रहा था। कड़ी धीमे २ गुनगुनाता हुषा, कर्तव्य-पथपर आरूढ किन्तु उनान्दे संठजीको उससे अधिक दिलचस्पी किन्तु कर्तव्यकी मजबूरीस दूर-प्रकृति । पुत्रकी नाई मालूम नहीं होती थी। स्वाभाविकतया अपने उपकार संसारपरबखेरने-श्रोस इस एक अपवादको लेकर, सूर्यका तेज-पूर्ण से भीगे मोटे मोटे सुगंधित ढेलोंका ध्यान मनमें प्रभुत्व और भी अधिक व्याप्त और भी प्रभावशाली लिये, खेतोंकी ओर बढ़ा चला जारहा था। जान पड़ने लगा । कर व्यका वह अग्रदूत संसारभरको मेरे घरसे थोड़ी दूर एक धनिक-परिवारकी कमे में प्रवृत्त कर, कर्म-क्षेत्रकी शिखापर पहुँच कर हवेली थी । उसकी दीवारोंके उसपार मुझे दिखाई पूर्णरूपेण चमक रहा था। दिया-सेठजी टाँगपर टाँग धरे, मुलायम तकियेपर
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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