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________________ भाषण (श्रीमती रमारानी जैन, डालमियानगर ) [ दिगम्बर जैन परिषद के साथ लखनऊ में सम्पन्न हुई महिला दिकी सभानेत्री श्रीमती रमारानीका यह भाषण है । श्रीमती रमारानी दानवीर साहू शान्तिप्रसादजीकी आदर्श धर्मपत्नी है उन में समाज-संवाकी अखण्ड लगन है । साहूजीने बनारस में जैन ज्ञानपीठ नामक जो महान संस्था अनुसंधान और प्रकाशन के लिये स्थापित की है, उसकी अध्यक्षा आप ही हैं। हमें आशा है आपके नेतृत्व में समाज सेवाका उल्लेखनीय कार्य होगा ।] माननीया माताओं और बहिनो बात-वादियों से यह सुनते सुनते हमारे कान पक गये हैं कि हमारी सभ्यता संस्कृति मिटनेवाली है। हम अपनी की रक्षा नहीं कर सकती, शत्रु मौके अमानुषिक अत्या चार हमारे धर्म-कर्म सबको नष्ट कर देंगे । वास्तविक स्थिति चाहे जो हो, हमें दुनियाको एक बार फिर दिखा देना है कि भारतीय नारियों की नसों में भाज भी प्राचीन वीरांगनाओं का रक प्रवाहित हो रहा है। संसार-व्यापी युद्धके वातावरणा में उपर्युक्त भाव दिन पर दिन भारतीय नर-नारियोंके हृदयपर अधिकार किये जा रहे हैं—ऐसा होना स्वाभाविक है। युद्ध की भीषणता हमारे किये कोई नयी वस्तु नहीं है। आवश्यकता पड़ने पर भारतीय स्त्रियां रथ-चडी बन सकती हैं और 'जौहर' कर अपने सतीत्वको रक्षाके लिये अपने शरीरको अग्निकुडोंमें भी होम सकती हैं। हमने युद्धका एक दूसरा अभिशाप अपने ही देश में बंगाल प्राप्त के दुर्भिचके रूपमें देखा है। हमारी आलोंके सामने उस विस्तृत प्रान्तकी लाखों निरीह प्रावाल-वृद्ध वनितायें भूखों तप तप कर मर गई। जैसे जैसे यह युद्ध निकटता प्राता जाता है, ऐसी परिस्थितियोंक सामने आने की सम्भावना बढ़ती ही जायगी। युद्धकी भीषणता और संहारलीलाकी ओरसे चां मींच कर हम रहना चाहें तो हम नहीं रह सकती। पड़ोस में आग लगी देख कर कौन समझदार नारी होगी जो अपने कमरे के दरवाजे बन्द कर चुपचाप एक कोने में बैठी रह सकती है। ऐसी अवस्थामें हमारा कर्तव्य भागकी अपको बुझाकर पदोसीकी रक्षा करना और प्रतिकूल स्थिति के लिये अपने को तैयार करना मुख्य हो जाता है । उस आपसि काल में प्राय: हम अपनी छोटी-मोटी समस्याओं को भूल सी जाती हैं। ठीक वही अवस्था प्राज हमारे नारी समाजकी है। आज हमारे कर्तव्य कई गुने बढ़ गये हैं। हमें बाहरी आघातों से बचनेके साथ साथ अपनी आन्तरिक अवस्थाका सुधार करना परम आवश्यक है । यदि हम अपनी सुविधाके लिये अपने वर्तमान कर्तव्योंका वर्गीकरण करें तो वे निम्न वर्गो में विभक्त किये जा सकते हैं और उनका पालन हमारा धर्म सा हो जाता है- (१) संगठन (२) शकि-संचय (३) आन्तरिक सुधार (४) पीड़ितों की सहायता (५) सत्याचरण, सम्यक् धारणा ।। सत्याचरण के आधारपर जैन समाजकी यह विशाल इमारत बनी थी और इसी आधार पर यह सदा स्थिर रहेगी कल्पनातीत काल से जिस धर्माचरणका हमारा समाज पालन करता आरहा है, उसको इस युग में और भी उत्साह पूर्वक सम्पादन करना हमारा कर्तव्य है । सत्याचरय की भांति सम्यक् धारणा भी हमारे धर्मका विशेष अंग हैं-अनेक धर्मों और संस्कृतियोंके मेलजोलसे और पास-पड़ोस से जहां हमारी अनेक अच्छी बातें पुष्ट हुई, वहां हमारे धार्मिक जीवनमें दो चार आमक धारणाओं के और मिथ्यात्व के भाव भी आ गये हैं । मिथ्यात्व के विषय में रोज शास्त्र सभाओं में चर्चा होती है--मुझे हर्ष है कि शिक्षा के प्रचारके साथ साथ जैनधर्मके सिद्धान्तोंकी वास्तविक
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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