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________________ पेड़-पौधोंके सम्बन्धमें जैनमान्यताओंकी वैज्ञानिकता ( लेखक - पं० चैनसुखदास जैन, न्यायतीथे ) >>> जैन मान्यताएँ अधिकाधिक वैज्ञानिक है, यह कहने में मुझे जरा भी संकोच नहीं होना । श्रनुप्रेक्षा नामक स्वाध्याय के द्वारा अगर इन मान्यतानोंकी गहराई में हम प्रवेश करें तो हमें ज्ञात होगा कि ये वर्तमान भौतिक विज्ञानवाद के द्वारा भी समर्थित हैं । परोक्ष नश्वके खण्डन में हम कभीकभी बहुत अधीरता से काम लेते है; किन्तु कई बार देखा गया है कि जिस बातको इमने असम्भव समझकर असत्य कह डाला है वही सतत चिन्तनके द्वारा बादको हमारी ठीक समझमें श्रागई है। कोई बात समझ में नहीं श्रानेपर यदि उसका सामंजस्य बैठानेके लिये हम अपने विवेकका उचित उपयोग करें तो बहुत बार हमें अपने इस प्रयत्म में सफलता मिलना भी सम्भव है । अभी थोड़े दिनों पहले मैं विगत अगस्त मासका 'विज्ञान' देख रहा था । उसमें 'पेड़-पौधोंकी अचरज भरी दुनिया' नामक लेख पढ़ने में श्राया था । उस लेखके पढ़ने से मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि वनस्पति- जीवोंके संबंध में जो जैन-शास्त्रों की मान्यता है उसे वर्तमान भौतिक विज्ञानद्वारा भी समर्थन प्राप्त होसकता है। जैनोंने जिस तरह यह माना है कि यह सारा लोक साधारण वनस्पति से भरा पड़ा है। साधारण बनस्पति अदृश्य है और मनुष्य, पशु, पक्षी कीड़ेमकोड़े, पेड़ आदि सभी प्राणियों में इस साधारण वनस्पति का निवास स्थान है, उसी तरह बर्तमान भौतिक विज्ञान भी मानता है कि पौधे अर्थात् बनस्पतियोंसे सभी जगत् व्यास है । इस विषयपर गहराई से विचार करनेके लिये उक्त लेखका निम्न लिखित अंश ध्यान देने योग्य है " " वनस्पति संसारके कुछ अति सूक्ष्म सदस्य - जो कोरी आँखोंके लिए अदृश्य रहते है और केवल सूक्ष्मदर्शक में हीं दिखलायी पड़ते हैं और जिन्हें लोग भूल से कीटाणु कहते हैं—हम में रोग उत्पन्न करते है और हमारी जान तक ले लेते हैं। एक प्रकारकी अतिसूक्ष्म वनस्पति जब हमारे पेटोंमें पहुँच जाती है तो श्राहार पचनेके बदले फफदने लगता है। एक दूसरे प्रकारको वनस्पति जब हमारी त्वचा पर उगने लगती है तो दाद नामक त्वचा रोग उत्पन्न होता है। दहीका जमना, पटसनका सड़ना, जलेबी या पाव रोटी के लिए आटे में खमीर उठना, ये सब क्रियाएँ अतिसूक्ष्म निम्न श्रेणी के पौधों से होती है। बैक्टीरिया अर्थात् दण्डाणु, शैवाल ( सेवार) फफूंदी और काई आदि सभी एक प्रकारके पौधे हैं। दण्डाणु एक प्रकारके बहुत सूक्ष्म जन्तु है, ये प्राणियों के शरीर में रहते हैं। दवायें, मिट्टी में, जलमें और वस्तुतः सभी पदार्थोंमें ये रहते हैं । सूक्ष्मदर्शक यन्त्रसे दीख जाते हैं; पर वैज्ञानिकों का खयाल है कि ऐसे दण्डाणु भी हो सकते हैं जो कि से अधिक शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शक यन्त्र से भी न देखे जा सकें । ये दण्डाणु दो तरह के होते है पोषक और दानिकारक । जो मनुष्य शरीर के लिए उपयोगी हैं वे पोषक, और बाकी सब हानिकारक हैं । ये ही रोगाणु कहलाते हैं। ये ही क्षय, न्यूमोनिया, टाइफाइड, दाद, उपदंश आदि रोगों को उत्पन्न करते हैं। विज्ञान मानता है कि ये एक प्रकार के पौधे अर्थात् बनस्पति हैं ।" जैनोंने जैसे प्रत्येक वनस्पति में भी साधारण वनस्पतिका निवास माना है। इसी तरह विज्ञान भी कहता है कि वृक्षो और लताओ में भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म पौधे रहते हैं । देखिए ""जब हम अपनी वाटिकाओं में फल-फूल उत्पन्न करते हैं या खेतों में अनाज उगाते हैं तो कभी कभी बनस्पति संसारके कुछ निम्न श्रेणी वाले श्रतिसूक्ष्म सदस्य हमारे पेड़-पौधोंपर पराश्रयीकी तरह था बसते हैं।.... वैज्ञानिकोंने जो पौधों की शेवाल, फुफूदी, लिवरवर्ट, काई, फर्न, नातवजी और पुष्पद ये सात जातियां मनी हैं। इन सबका विस्तृत वर्णन करनेकी यहाँ श्रावश्यकता नहीं है । पर यह कहने में कोई हानि नहीं है कि अभी इस वर्गी
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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