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________________ २८६ अनेकान्त [ वर्ष ६ प्रायः द्वेष और पचपात-मूखक रहता है। इसका प्रत्यक्ष करने वालोंने अन्य धर्मोंके सम्बन्ध में जो गलत मार्ग उदाहरण पौग्रंथोंके सीह-सुत्त', 'चूल सुकुनदायि-सुत', अपनाया बौद्ध भिक्षु आज भी उसी मार्गका अनुसरण कर उपाक्षि-सुत्त आदि अनेक सुत्त है, जिनका एकमात्र उद्देश्य रहे हैं और दूसरे धर्मोके प्रवर्तक और उनके सिद्धान्तोंका बुद्धका बड़प्पन और महावीरका धोखापन प्रकट करना है। गलत रूपसे न केवल चित्रया ही कर रहे हैं किन्तु उनका इस प्रकारको मनोवृत्तिको खिये हुए साहित्यके अध्ययनसे परिहास भी कर हे है. जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण राहुल अन्य सम्प्रदायोंके सम्बन्धमें जो गलतफहमी होजाती है, जीका सिंह सेनापति' है, जिसमें महावीरके 'अहिंसा' वही सब अनयोंकी मूल होती है। प्रतः भित शान्तिसे सिद्धान्त और 'नग्नता' का वीभत्स चित्रण करके उनकी हमारा अनुरोध है कि वे समाजवादी होकर समाजका हनन मधील उदाई गई है। यह एक बड़ी ही क्षित मनोवृत्ति न करें और जैनशाबोंका अध्ययन करके तब उनके संबंध है। क्या इस तरहसे स्वधर्मका हितसाधन किया जा में अपनी धारणाको बनावें। सकता है ? सूरजपर थूकनेमे थूकनेवालेकी ही दुर्गति होती हमें इस बातका बड़ा खेद है कि पिटकोंको निबद्ध है. सूरजका कुछ नहीं बिगड़ता। गोत्र-विचार (लेखक-पं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री) गोत्र विषयमें अभी तक बहुतमे विद्वानोंने लिखा जब तक एक भवमें गोत्रपरिवर्तन न स्वीकार किया जाय है। इससे गोत्र और उसके उच्च, नीच भेदोंपर पर्याप्त तब तक सभी पागम वाक्योंको एक पंक्ति में ला बिठाना प्रकाश भी पड़ा है। पर सबके सामने एक प्रश्न खडा ही कठिन है। प्रसन्नताकी बात है कि मैंने अब ऐसे भागमरहा कि एक पर्यायमें गोत्रका परिवर्तन होता है या नहीं? प्रमाय संग्रह कर लिये हैं जिसमें एक भवमें भी गोत्रकुछ विद्वानोंने गोत्रपरिवर्तन माना और कुछने नहीं। जिम परिवर्तनकी बात स्वीकार की गई है। अतः अब मेरी विद्वानों ने माना के गोत्रविषयक समस्याके सुलझाने में बहुत इच्छा है कि मैं इस विषयको पाठकोंके सामने प्रस्तुत कर कुछ सफल भी हुए हैं। उन्हें प्रागमवाक्योंकी बहुत तोर- दूं। पर मेरे खयालसे इसपर सर्वात विचार करना ठीक मरोब नहीं करनी पडी। पर जिन विद्वानोंने एक भवमें होगा। इससे लेखका डांचा कुछ बढ़ तो जाएगा पर उससे गोत्रपरिवर्तन नहीं माना वे गोत्र-विषयक समस्याके अनुकूल व प्रतिकूल चर्चा होकर सारा विषष साफ हो सुलझाने में उतने सफा न हुए । परिणाम यह हुमा कि जायगा, ऐसी मुझे भाशा है। तदनुसार ही प्रयत्न किया बहुत कुछ लिखनेके बाद भी समस्या जहांकी तहां बनी जाताहै:रही। जिस समय इस विषयपर विविध विचार प्रकट किये (१) गोत्र और उसके भेद जारहे थे। मुझसे भी मेरे बहुतसे परिचित मित्रोंने लिखने- सर्वार्थ सिद्धि में लिखा कि उचगोत्र कर्मक उदय का प्राग्रह किया था। उनका कहना था कि 'कर्मविषयक जीव लोकपूज्य कुसमें और नीचगोत्र कर्मक उदयसे ग्रंथोंके स्वाध्याय आदिमें आपकी रुचि भी है और थोना गर्हित कुलमें जन्म लेता है। यह उच्चगोत्र और नीचबहुत प्रवेश भी, अतः भापको अवश्य लिखना चाहिये।' गोत्र कर्मका कार्य हुना। इससे यह भी मालूम होता है पर मैं लिखनेसे बचता रहा, क्योंकि मैं जानता था कि कि लोकमान्य कुखको उस्चगोत्र और गहित कुलको नीच.
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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