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________________ किरण ८] गोत्र-विचार गोत्र कहते हैं। तथा सामान्य कुलका नाम गोत्र है, यह था तब बहुतसे राजपूतोंने मुसलमानोंसे सम्बन्ध स्थापित निष्कर्ष भी इससे निकल पाता है। तस्वार्थ राजवार्तिकका कर लिया था और मुसलमान हो गये थे । यही बात यही अभिप्राय है। इतनी विशेषता है कि उसमें उच्च कुल वृटिश साम्राज्य में भी देखी जाती है। वर्तमानमें .. लाख और नीच कुलके कुछ प्रकार बता दिये हैं। तस्वार्थाधिगम ईसाई अधिकतर हिन्दू ही है। अतएव यहां सम्तान शब्दभाष्यमें उचगोत्रकर्मको देश, जाति, कुल, स्थान, माम, का अर्थ विवक्षित सखोंके माश्रयसे की गई व्यवस्थाको सरकार और ऐश्वर्य प्रादि सभीके उत्कर्षका निर्वतंक और मानने वाले और न मानने वाले मनुष्योंकी परम्परा ही लेना नीच गोत्रको चाण्डाल, मुष्टिक, व्याध, हत्यबन्ध और चाहिये। किसी संस्थामें नये आदमी प्रवेश पाते हैं और दास्य भादिका निर्वतंक बताया है । तस्वार्थाधिगम भाष्यमें पुराने निकल भागते हैं तो भी जिन प्राधारों पर संस्था उच गोत्रके जितने कार्य लिखे है वे सब उच्चमोत्रके हैं स्थापित की जाती है सस्था उन्हीं भाधारोंपर चलती रहती इसमें विवाद हो सकता है। है। कुछ नये भाव मियों के प्रवेश पाने और पुराने प्रादवीरसन स्वामीने भी जीवस्थान चूलिका-अधिकार- मियोंके निकल भागनेसे संस्थाका मरण नहीं है। संस्थाका की धवला टीकामें गोत्र, कुल, वंश और सन्तानको एका- मरण तो तब माना जा सकता है जब उसके मानने वाले र्थक माना है। यथा उसके मूल प्राधारोकोहीबदल दें। किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि संस्था व्यक्तियोंसे भिन्न है । वास्तवमें 'गोत्रं कुलं वंशः सन्तानमित्येकोऽर्थः। संस्थाको स्थापित करनेवाले महापुरुषके मूल सिद्धान्तोको इस जपर्युक्त कथनसे सना निश्चित हो जाता है कि जिन व्यक्तियोंने अपने जीवन में उतार लिया और भागे ऐसे सन्तान या परम्पराका नाम गोत्र है। अब यदि यह परम्परा उथ अर्थात लोकमान्य होती है तो वह उच्च गोत्र शब्दके व्यक्तियों की परम्परा चलानेको फिकर रखी वे व्यक्ति ही द्वारा कही जाती है और गर्हित होती है तो वह नीच गोत्र संस्था है। इसीलिये तो स्वामी समन्तभवने यह कहा है शब्दके द्वाग कही जाती है। इन दोनों परम्पराओंका कि धर्म धार्मिकोंके बिना नहीं होता । इस प्रकार हमने खुलासा निम्न उल्लेखसे हो जाता है। यह उल्लेख प्रकृति ऊपर सन्तान शब्दका जो अर्थ किया है वह कुछ हमारी अनुयोगद्वारका है : निरी कल्पना नहीं है किन्तु उपर उच्च गोत्रका जो साक्षण दिया है उसीसे यह अर्थ फलित होता है। मनुष्यों के चार्य और अनार्य इन दो भेदोंके करनेका कारण भी यही मम्वन्धानां आयेप्रत्ययाभिधानविहानबन्धनाना स प्रकार इतने सक्तम्यसे यह निश्चित हुना कि सन्तानः उच्चैर्गोत्रम् । xxतद्विपरीतं नीगोत्रम् ।” जिन्होंने जैनपरम्परा अनुसार की गई सामाजिक व्यवस्था जो दीशायोग्य साधु भाचार वाले हों. जिन्होंने साधु को मान लिया वे आर्य कहलाये और शेष अनार्य । ब्रहाण प्राचारवालोंके साथ सम्बन्ध स्थापित कर लिया हो तथा और बौद्ध परम्परा भी इसी व्यवस्थाको मानती हैं। अन्तर जिनमें यह 'पाय' है इस प्रकारके ज्ञानकी प्रवृत्ति होती हो केवल जन्मना और कर्मणाका है और भारतके ये ही तीन और यह 'चार्यस प्रकारका शाब्दिक म्यवहार होने धर्म मख्य हैं। अतः इन तीन धर्मोकी छत्रछायामै मार्य हुए लगा हो उन पुरुषोंकी परम्पराको 'उगोत्र' कहते हैं सब मानव उनके द्वारा सुनिश्चित की गई सामाजिक व्यव. और इससे विपरीत 'नीचगोत्र' है। स्थाको माननेके कारण आर्य कहलाये। किन्तु इन मार्योंकी यद्यपि सन्तान शब्द पुत्र, और प्रपौत्र भादिक अर्थ में परम्परामें नाच गानसे भाजीविका करने वाले, शिल्प कर्म भी भाता है। पर यहां सन्तानसे इसका ग्रहण नहीं करना वाले और सेवावृतबाले पुरुषों को कभी भी सामाजिक ऊँचा चाहिये, क्योंकि एक तो यह व्याप्य है और दूसरे ऐसी स्थान नहीं मिला। अत: थे और अनार्य नीच गोत्री माने परम्परा अपने पूर्वजोंकी परम्परासे भाई हुई व्यवस्थाका गये तथा शेष तीन वर्णके मार्य और साधु उचगोत्री। यही त्याग भी कर सकती है। जब भारतमें मुसलमानोंका राज्य उपर्युक सक्षणका सार है। किन्तु जैन और बौद्ध परम्रा
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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