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अनेकान्त
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वर्षे ६
और सम्पादन' तथा 'जैनी नीति' के नामसे दो टिप्पणियाँ मुझानी चाहिये।" पण्डितजीकी हसी नीनिका यह फल है लिखी। पहली टिप्पग्रीमें वही सम्पादन ग्रहण करनेकी कि प्रारम्भमें उनका विरोध करने वाले भी अन्तमें उनके विवशताओका उल्लेख करके लिखा है
मित्र बन जाते हैं। (भाश्रमकी व्यवस्थाका भार होनेके कारण)-"इस स्थिति में यद्यपि पत्रका सम्पादन जमा चाहिये वैसा नहीं हो
एक वर्ष बाद, समन्तभद्र श्रमका स्थान सरसावा बदल सकेगा तो भी मैं इतना विश्वास अवश्य दिलाता हूँ कि
दिया गया और उसीने इस प्रकार वीरसेवामन्दिरका रूप यहाँ तक मुझसे बन मकेगा मैं अपनी शक्ति और योग्यताके
धारण किया. और पण्डितजीका जन्मक्षेत्र ही अब उनका अनुसार पाठकोंकी सेवा करने और इस पत्रको उन्नत तथा साधनाक्षेत्र हो गया है। सार्थक बनाने में कोई बात उठा नहीं रक्खूगा।" असल में 'जन कचि नहीं, जनहित ही आपकी सम्पादन
यह पण्डित जीकी जीवन सामग्रीका बहुत अधूग संक
लन। इसकी उपमा उम हनेसे दी जा सकती है, नीति रही।
जिसकी कलई बहुत कुछ उड़ी हुई है, फिर भी सावधानीसे मालोचनापद्धतिका 'मोटो'
आँकने पर जिसमें कामचलाऊ सूरत दिखाई दे जाती है। 'भनेकान्त' का प्रारम्भ ५ दोहोंसे होता है, जिसमें अन्तिम इस प्रकार है
संक्षेपमें स्वस्थ हों तो अपनी गद्दी पर और बीमार हो
वो अपनी शैया पर पड़े पड़े भी, एक ही धुन, एक ही शोषन-मथन विरोषका, हुमा करे अविराम ।
लगन, एक ही विचार और एक ही कार्य-शोध-खोज एवं प्रेम पगे रलमिल सभी, करें कर्म निष्काम ||
निर्माण, यह पं. जुगलकिशोर मुख्तारका सम्पूर्ण परिचय वास्तवमें यह आपकी आलोचना पद्धतिका 'मोटो' है। है। उनके भीतर महान जैनसाहित्यका श्राकुल दर्शन है शोधन मथनका काम निरन्तर हो, प्रेमके साथ हो, रलमिल और बाहर उसे प्रकाशमें लानेकी पाकुलता है। यह दर्शन कर हो, इसमें परस्पर वैर-विरोधकी तो कहीं गुआयशही ही उनका पथी, यह पाकुलता ही उनका सम्बल है। नहीं है! इसी अंकमें आपने 'प्रार्थनाएं' शीर्षकसे ४ बातें इसके सहारे उन्होंने अपने जीवनके पिछले ३६ वर्ष जैनकही है। उनमें तीसरी इस प्रकार है-"यदि कोई लेख साहित्यके अन्धेरे कोणोंकी खोजमें लगाये हैं और इसीकी अथवा लेखका कोई अंश ठीक मालूम न हो अथवा विरुद्ध धुनमें उन्होंने अपनी चलती हुई मुख्तारकागका परित्याग दिखाई दे, तो महल उसीकी वजहसे किसीको लेखक या किया है। उनकी खोजपद्धतिसे भारतकी श्रद्धा है, यूरोपकी सम्पादकसे देषभाव न धारण करना चाहिये किन्तु अने- विवेचना और वास्तविक बात यह है कि उस खोजका कान्त नीति और उदारतासे काम लेना चाहिये और हो वास्तविक मूल्य हम नहीं, हमारे बादकी पीढ़ी ही ठीक २ सके तो युक्ति पुरस्सर संयतभाषामें लेखकको उसकी भूल ऑक सकेगी।