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________________ - एक पौराणिक कहानी | ...... गुरु दक्षिणा ...... श्रीवासचन्द्र जैन विशारद "नहीं, पिताजीने ऐमा ही बताया था।" तर याद है। मुझे पिता नीन मामा विद्या पढ़ाई में "तुम भूलते हो पर्वत ! प्राचार्यपादने ऐसा कभी नहीं गलत नहीं समझ सकता!" "तुमने समझा नहीं भाई!" "तब ती तुमने पिनानीकी शिक्षा ग्रहण ही नहीं की।" मैं ठीक कहना है, यही अर्थ है। 'प्रजैयष्टव्यम शु गण देवी-देताओंको प्रिय है. उनकी मेवामें अनि "यही कि पिता जीने कहा था--'अजैर्यष्टगम्" अज करना चाहिये, 'प्रीव्यम्" माने वक। बकरे के द्वारा यज्ञ-पूजादि विधान करने "मुझे विश्वास गया पर्वत ! तुम मिच्यामतका चाहिये ।" प्रनार करने चले हाहा..... प्राचार्यने पवार का! "यही भ्रम तो तुम्हारे मस्तिष्क में पैठ गया है पर्वन!" भी था किन्तु......." 'कौन मा!" "किन्न क्या?" 'यही कि तुम्हें अज शब्द के अनेकार्थ मालूम नहीं है। "देखो. अपना महपाठी स मिहामन। अज का अर्थ होता है नीन वर्ष पृगने बाह।" अधिपति हे!" नीन वर्ष पुराने श्रीle?" "मोम्या ?" "हो मित्र ! तीन वर्ष पुगने बाहि, जो अङ्कर उत्पन्न "उसके मामने भीनी श्राचार्यपादने हम बारका करने की शक्तिमे वञ्चित हो चुक हो!" अर्थ बनाया था।" "ऐसा क्यो?" हा ठीक! वह राजा भी है न्यायपति भी है" "हिंसासे बचने के लिये ! यश पूजा पुण्य-माधनके लिये । उनीमे न्याय कगया जाय' (मोड़ा रुक कर) पर raat मा रूपी पापको किञ्चिन्मात्र भी स्थान नहीं है।" यदि तुम झूठे निकले तो?" "क्या पूजा जैसे महान कार्यकं लिये थोड़ी मी हिमा “जो दंड तुम विधान करोगे, मैं सहर्ष स्वीकार करुंगा।" नहीं की जा सकती?" "अष्का"....( मोचकर ) जो झूठा निकले उमको 'नही पर्वत ! धर्म प्राशिमात्रका हितैषी है। यदि हम जिहाछेद हो ताकि वह अपने झूठे वचनोंमें जनताको हासन अपने पूनाकार्य के लिये अन्य प्राणियोंको कष्ट देंगे नो यह न पहुँचा सके। ठीक है न!" धर्मके विरुद्ध आचरणा होगा। धर्म ऐमी श्राझा कभी नहीं "ठीक कहने पर्वत ! म मंजूचना का दमकता, और ऐसा करने पर वह धर्म नहीं रह सकता रानमभामें उपस्थित होंगे।" चल्कि परोक्ष रूपसे स्वार्थसिद्धिका साधन बन जावेगा।" "उसमें कष्टकी बात ही क्या है ! जो पशु यशक काम . नारद और गर्वन गुरुभाई थे। नृपकुमार वसुक मा. पाता है बहनो सीधा स्वर्ग जाना है।" दानाने है। प्राचार्यप्रवर 'लोग्क दम्ब में शिक्षा पास की । "कैमी बान करते हो पर्वत ! मैं देखता हूँ तुम्हारी प्राचार्य पर्वतक गिता थे। पिना दान हुए भी उन्हें पर्वत, मिध्यामनि तीक्ष्ण होती जा रही है। कैसा वहम घुस गया प्रान प्रेम न था। उन्होंने अपने अनुभव और विशिष्ट ज्ञान है तुम्हारे मस्तिष्कमें से प्रतीत कर लिया था कि पर्षत ऋद्धि है। मद्धम "मैं ठीक कह रहा है नारद ! पिताजीने यही कहा था का परिगेषक होगा। श्रानायंने यद्यपि उसकी शिक्षामे यही अर्थ किया था उस पागम वाक्यका! मुझे अच्छी कमी प्रकार की टि न बी किन्तु वे मदेव यही प्रयत्न
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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