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________________ ३४ अनेकान्त [वष ६ प्रगतिशील साहित्य हिमायती कहा करते है-यह साहित्यमर्मज्ञोका--सभी नहीं, कतिपयोंका कहना है किसानों का साहित्य है, यह पूजीपतियों के विरुद्ध पुकार है, कि कविको इस बातकी स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि इसमें पीवित मानवता चीख रही है, परंतु यह सिर्फ भोली अपने अनुभवोंको बिल्कुल उसी रूपमें उपस्थित करें वह जनताको मुखावा मात्र है, विन दहाव भाँखों में धूल झोकना जैसे वह अनुभव करता है। परन्तु यह नहीं सोचा जाता है मात्र सभी सेवाभावना, सच्चा मार्तनाद,सरची दयाईता कि इस अनुभूतिके ही नामपर भयानक अश्लीलता जोर देखनाहोतो 'युगवीर'की पंक्तियाँ देखिए वे क्या कहरहे है-- पकड़ती जा रही है। "दीन दुखी जीवोंपर मेरे वह जीवन, जीवन नहीं कहा जासकता जिससे लोक उरसे करूया-स्रोत बहे।" कल्याण न हो, विश्वमें कुछ प्रादर्श उपस्थित न हो. सुप्त"फैले प्रम परम्पराम, प्राणों में चेतनाका संचार न हो। यदि ऐसा नहीं होता है तो ____ मोह दूर, पर, रहा करे।" कहना पड़ेगा कि वह जीवन, जीवनहीन, जनजीवन है,मार"प्रिय-कटुक-कठोर-शब्द नहि, कीय जीवनमे भी बदतर जीवन उसकी संज्ञा है। कोई मुखसे कहा करे ।" "उन्हें नरपशु कहना उपयुक, पर हमारे नवनूनन कवि 'भगवत्' जी भी मानवताके ज्ञानधनसे जी रीते हैं । परम उपासक है। इनकी कवितामें भी पीरित और सस _ न जीनेके हित खाते वह मनवको चीरकार सुनाई देती है । भापकी रचनाएँ बबी बस्कि खानेको जीते हैं"-"भगवत्" मर्मस्पशिणी, हृदयविदारक और स्पष्टतासे परिप्लावित जिनके हृदयमै कामुकताकी, विलासिताको चासना है, होती है। देशकी दयनीय दशा, समाजका करुण-रोदन, इच्छा है, उन्हें भी खाने के लिये जीते रहने वाले नर-पशु धर्मकी चीत्कार आप भूले नहीं हैं। जहाँ एक ओर हमारे नहीं कहा जाय तो क्या कहेंगे ! हिन्दीसाहित्यमें अश्लीलता,पाशविकता और कलाके नामपर घृणाका प्रचार हो रहा है, स्वानुभूतिके नामपर व्यभिचार भाज हिन्दी साहित्य में कचरसे अधर, गातसे गात, बाहुसे बाहु मिलानेके गीत प्रचुर परिमाणमें निर्मित होकर की कुरिसत भावनाओंको पाश्रय मिल रहा है वहाँ यह कवि अपनी प्रांतरिक वेदनाको छिपाने में पूर्णतया असफल पत्र-पत्रिकाओंके मुखपृष्ठोंकी शोभा बढ़ातेहुए वास्तव में हिन्दी साहित्यको कलंकित कर रहे हैं। परन्तु वे जैनकवि ही हैं, है, वह कह रहा है :-- जिनकी अध्यात्मिक गंगा निरंतर प्रवाहित ही है। वह "सोने सोने में ही तुमने अपना समय बिताया" कितना मर्म छिपा हुआ इस एक ही पंक्तिमें ! प्रभावित नहीं किसी बाद विशेषसे । - अनेकान्तको सहायताके चार मार्ग (१) २५),५०), १००) या इससे अधिक रकम देकर महायकोंकी चार श्रेण्यमें से किसीमें अपना नाम लिबाना । (२) अपनी श्रोरसे असमयौको तथा अजैन विद्वानो लायन्त्रेग्यिो एवं संस्थाको अनेकान्त फ्री (बिनामूल्य) या अर्ध मूल्यमें भिजवाना और इस तरह दूसरोको अनेकान्तके पढ़नेकी सविशेष प्रेरणा करना । (इस मद में सहायता देने वालोकी ओरसे प्रत्येक चौदह रुपयेकी सहायनाके पीछे अनेकान्त चारको फ्री अथवा पाठको अर्धमूल्य में भेजा जा सकेगा। (३) उत्सव-विवाहादि दान अवसरों पर अनेकान्नका बराबर खयाल रखना और उसे अच्छी सहायता मेजना तथा भिजवाना. जिमसे अनेकान्त अपने अच्छे विशेषाङ्क निकाल सके, उपहार प्रन्योंकी योजना कर सके और उत्तम लेखोर मुरस्कार भी दे सके । स्वन: अपनी ओर से उपहार प्रन्योंकी योजना भी इस मद में शामिल होगी। ()अनेकान्तके ग्राहक बनना, दूसरोंको बनाना और अनेकान्तके लिए अच्छे अच्छे लेख लिखकर मेजना, लेखों की सामग्री जुटाना तथा उसमें प्रकाशित होने के लिए उपयोगी चित्रांकी योजना करना और कराना। -सम्पादक
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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