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________________ जैनजागरणके अग्रदूत श्री बा० सूरजभानजी का पत्र इलाहाबाद, पढ़ते थे। मामूली जैनी ही नहीं किन्तु करीब २ सब १७. १२४३ ही बड़े २ जैन महान विद्वान् और इंडित, इन ही श्रीमान् परोपकारी कौशलप्रसादजी! भट्टारकोंका पक्ष लेते थे और उनके वचनोंको प्रमाण पापत्र मिला,मैं तो सदासे ही बायू जुगलकिशोर में पेश करके जैनधर्मचला जैनधमंचलाकी दुहाई देते मुख्तारका स्तुतिपाठ करने वाला और गुणगान करने वाला रहा हूँ इस बातको दुनिया जानती है । ऐसी थे । यह बा० जुगलकिशोर ही हैं जिन्होंने अपनी दशामें मैंने उनके कीर्तिगानकी बाबत इस समारोहमें अथक कोशिश, परिश्रम और भारी खोजके द्वारा, कुछ लिम्ब भेजना फिजूल सा ही समझा था, हाँ यहाँ अपने महान पाण्डित्यबलसे बिल्कुल ही अकाट्यरूपसे अपने घर इस बातकी खुशी जरूर मनाई थी कि यहाँतक सिद्ध कर दिखाया कि भट्टारकांने अपने बनाये सहारनपुरकै जैनियोंकी भी आँखें खुली और अपने ग्रंथों में दूसरेधर्मोके अमान्यसिद्धान्तों,मान्यताओं और मच्चे धर्मोपकारीका सम्मान करनेकी सूझी, यहाँ तो धर्मचर्याओंको जैनसिद्धान्त बताकर नधर्मको महा यह खबर सुनते ही मेरे लड़के सुखबन्तरायने बड़े मिथ्यात्व बनाने में कुछ भी कसर नहीं छोड़ी है। यहां जोशके साथ यह कहा था कि बाबू जुगलकिशोर तक कि अपने बनाये अनेक ग्रंथोंको बड़े २ महान जैसी कुर्वानी ( sacrifice ) कौन कर सकता है, . प्राचार्यों के बनाये लिखकर जैनजातिकी आँखों में जो उन्होंने जैनधर्मके उद्धारके वास्ते की है और धूल डालकर उसको बिल्कुल ही अंधा और महाऐसी वशामें की है जब कि जैनजाति उनका सम्मान मिथ्यात्व बना दिया है और यहाँ तक धोखा दिया है करने और आभार माननेके बदले उलटा उनका कि उन जाली ग्रंथों में हिन्दूधर्म-पुस्तकों के श्लोक लिख विरोध करती थी, परन्तु वा० जुगलकिशोर मानके कर उनको दिगम्बर जैनधर्मके महान आचार्योके भूखे नहीं है और न निन्दासे घबराते हैं, ज्यों ज्यों ग्रंथों के श्लोक लिख दिया । ऐसी भारी खोज करके उनका विरोध होता था त्यों त्यों वह समझते थे कि बा० जुगलकिशोरने जैनजातिकी आंखें खोलनेका जो जैन जाति इस समय महा अन्धकारमें फँसी हुई है, काम किया है वैसा कौन कर सकता है? मेरा तो रोओं इस कारण उसके उद्धारकी ज्यादा २ कोशिश करनेकी २ उनका श्राभारी है। मुझे तो खुशी इस बात की है जरूरत है। दिगम्बर जैन कहलाने वाले जैनी, बना- कि उनका यह महान उपकार और परिश्रम फलता भूषणसे सुसरित, हाथी घोड़े, नौकर चाकर मादि दिखाई दे रहा है। मालूम होता है कि उनके उपकार महा भारम्बर और परिणहमें फंसे हुवे भट्टारक नग्न से अब जैन पण्डितों और जैनजातिकी आंखें खुलने दिगम्बर मुनि और भाचार्य माने जाते थे और जा लगी हैं और उनको अपने सकचे परोपकारीकी पह अपनेको १३ पंथी कहते थे वे भी इन ही पाखण्डी चान होने लगी है, तब ही तो सहारनपुरमें उनके 'भट्टारकोंके बनाये ग्रंथोंको सर्वज्ञवाक्य मानते और सम्मानमें यह सभा हुई है। -सूरजभान
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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