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________________ بع: अनेकान्त शशि-कवि-शुचि-शुक्ललोहितं सुरभितरं विरजो निजं वपुः । तव शिवमतिविस्मयं यते यदपि च वाङ्मनसीयमीहितम् ॥ ३ ॥ 'हे यतिराज ! आपका अपना शरीर चन्द्रमाकी दीप्ति के समान निर्मल शुक्ल रुधिर से युक्त, श्रुतिसुगन्धित, रजरहित, शिवस्वरूप (स्वपर वल्याणमय) तथा अति आश्चर्यको लिये हुए रहा है और आपके वचन तथा मनकी जो प्रवृत्ति हुई है वह भी शिव-स्वरूप तथा अति आचार्यको लिए हुए हुई है ।" स्थिति-जनन-निरोधलक्षणं चरमचरं च जगत् प्रतिक्षणम् । [ वर्ष ६ इति जिन मकलज्ञलाञ्छनं वचनमिदं वदतांवरम्य ते ॥ ४ ॥ 'हे मुनिसुव्रत- जिन ! आप वदतांवर हैं-प्रवक्ता श्रेष्ठ है आपका यह वचन कि 'चर और अचर (जंगम-स्थावर) जगन प्रतिक्षण स्थिति-जनन-निरोध लक्ष्य को लिये हुए है'- प्रत्येक समय में श्राव्य, उत्पाद और व्यय ( विनाश ) स्वरूप है- सर्वज्ञताका चिन्ह है - संसारभर के जड़-चेतन, सूक्ष्म-स्थूल और मूर्तअम्र्त सभी पदार्थोंमें प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और प्रौव्यको एक साथ लक्षित करना सर्वशना के बिना नहीं बन सकता, और इस लिए आपके इस परम अनुभूत वचनसे स्पष्ट सूचित होता है कि आप 'सर्वज्ञ' है ।' निरूपमयोगबलेन दुरितमलकलङ्कमष्टक निर्दहन् । अभवदभव-सौख्यवान् भवान् भवतु ममापि भवोपशांतये ॥ ५ ॥ ' (हे मानमुक्त जिन !) आप अनुपम योगवल मे - परमशुक्ल ध्यानामिके तेजसे- माठों पाप-मलरूप कोंको जीवात्माकं वास्तविक स्वरूपको श्राच्छादन करने वाले ज्ञानावरण, दर्शन घग्गा, मोहनीय, अन्तराय, चंदनीय, नाम, गोत्र और आयु नामके घाटों कर्ममलोको - भस्मीभूत करते हुए, संसार में न पाये जाने वाले माख्यको—परमश्रतीन्द्रिय मोक्ष-सौख्यको प्राप्त हुए हैं। आप मेरी-मुझ स्तोताकी - भी संसारशान्तिके लिए निमित्तभूत हृजिये – आपके श्रादर्शको सामने रखकर मैं भी योग बलसे श्राटों कर्म-मनोंको दग्ध करके ग्रतीन्द्रिय मसौख्यको प्राप्त करूँ, ऐसी मेरी भावना अथवा श्रात्मप्रार्थना है ।' [ २४ ] श्रीनमि-जिन स्तोत्र स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशल- परिणामाय स तदा, भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रायमपथे, स्तुयान्न त्वा विद्वान्सततमभिपूज्यं नमि-जिनम् ॥ १ ॥ 'स्तुति के समय स्तुत्य चाहे मौजूद हो या न हो और फलकी प्राप्ति भी चाहे सीधी उसके द्वारा हाती हो या न होती हो, परन्तु साधुस्तोताकी - विवेक के साथ भक्तिभाव पूर्वक स्तुति करने वालेकी स्तुति कुशल- परिणामकी - पुण्यप्रसाधक परिणामोंकी —— कारण जरूर है; और वह कुशल- परिणाम अथवा तज्जन्य पुण्यविशेष श्रेयफलका दाता है । जब जगतमें इस तरह स्वाधीनतासे श्रेयोमार्ग सुलभ है - स्वयं प्रस्तुत की गई स्तुतिके द्वारा प्राप्त है— तत्र, हे सर्वदा अभिपूज्य नमि-जिन ! ऐसा कौन विद्वान - प्रेक्षापूर्व कारी अथवा विवेकीजन है जो आपकी स्तुति न करे ? करे ही करे ।'
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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