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________________ क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं ? (ले० न्यायाचार्य पं० रदवारीलाल जैन कोठिया) हालमें श्रीमान प्रो. हीराखाबाजी जैन एम. ए. देकर केवल उनकी इस उपाधिसे ही किया है, और यह के अमरावतीने जैन इतिहासका एक विस अधराय' नामका तभी कर सकते थे जबकि उन्हें विश्वास था कि उस उपाधि निबन्ध लिखा है, जो गत जनवरी मासमें बनारसमें होने से उनके पाठक केवल समन्तभद्रको ही सममॅगे, अन्य किसी बाले अखिल भारतवर्षीय प्राच्य सम्मेलन १२वें अधि- भाचार्यको नहीं। इस प्रमाणको उपर्युक्त अन्य सब बातोंक बेशनपर अंग्रेजी में पढ़ा गया और जिसे बादको मापने स्वयं साथ मिलानेसे यह प्रायः निस्सन्देहरूपसे सिद्ध हो जाता हिन्दी में अनुवादित करके एक अलग पटक रूपमें प्रका- कि समन्तभद्र और भद्रबाहु द्वितीय एक ही व्यक्ति हैं।" शित किया है। इस निबन्धमें खोजपूर्वक जो निष्कर्ष यह माधार-प्रमाण कोई विशेष महत्व महीं रखता. निकाले गये और जो सभी विचारणीय है उनमें एक क्योंकि 'स्वामी' उपाधि भद्रबाहु और समन्तभद्रके एक निष्कर्ष यह भी है कि श्वेताम्बर भागोंकी नियुक्तियों होनेकी गारंटी नहीं है। दो व्यक्ति होकर भी दोनों 'स्वामी' केका भद्रबाहु द्वितीय और मालमीमांसा (देवांगम) के उपाधिसे भूषित हो सकते हैं । एम० ए० उपाधिधारी का स्वामी समन्तभन दोनों एक ही व्यक्ति हैं-मिला अनेक हो सकते हैं। 'व्याकरणाचार्य' मी एकाधिक मिल भिजनहीं, और यही मेरे भाजके इस लेखका विचारणीय सकते है। 'प्रेमी' और 'शशि' भी अनेक व्यक्तियोंकी विषय है। इस निष्कर्षका प्रधान पाधार है-श्रवणबेल उपाधि या उपनाम देखे जाते हैं। फिर भी इनसे अपने गोला प्रथम शिलालेखमें द्वादशवर्षीय दुर्मिक्षकी भविष्य. अपने प्रसंगपर अमुक अमुकका ही बोध होता है। अतः वाणी करने वाले भद्रबाहु द्वितीय के लिये 'स्वामी' उपाधि किसी प्रसंगमें यदि विद्यानंद और वादिराजने मात्र 'स्वामी' का प्रयोग और उपर समन्तभद्रके लिये अनेक प्राचार्य पसका प्रयोग किया और उससे उन्हें स्वामी समम्तमद्र बापयोंद्वारा 'स्वामी' पदवीका रूट होना। चुनाचे प्रोफेसर विवक्षित है तो इसमे भद्रबाहु और समन्तभद्र साहब बिसते है:-- कैसे एक हो गये? दूसरी बात यह है कि __ "दूसरा (द्वितीय भद्रबाहु-द्वारा द्वादशवर्षीय दुर्मिक विधानम्वने जहां भी स्वामी' पदका प्रयोग समन्तभद्र की भविष्य वाशीके अतिरिक्त महत्वपूर्ण संकेत इस लिये किया है वहाँ भासमोमांसा (देवागम) का स्पष्ट संबंध शिलालेखसे प्रास होता है कि भगवाहुकी उपाधि स्वामी है। प्राप्तपरीचाके 'स्वामिमीमांसितं तत्' उस्लेशमें स्परत: थी जो कि साहित्यमें प्रायः एकान्ततः समन्तभद्रके 'मीमांसित' शब्द का प्रयोग है, जिससे उनके विज्ञ पाठक लियेही प्रयुक्त हुई । यथार्थत: बड़े बड़े बेखकों जैसे अममें नहीं पा सकते और तुरन्त जान सकते है कि मास विद्यानन्द चौर वादिराज सरिने तो उनका उल्लेख नामम की मीमांसा स्वामीने--समन्तमदने की है, उन्हींका विचा१यह कटके भीतर का प्रशाय वाक्य लेखकका है। नन्दने उल्लेख किया है। इसी तरह वादिराजसूरिक २ स्तोत्र तीर्थोपमानं प्रथिनप्रथुपथं स्वामिमीमामितम् गत्' स्वामिनबारित उक्लेखमें भी 'देवागमेन सर्वज्ञो नाचापि -श्राप्तग्रीक्षा प्रदरर्यते' इन भागेके वाक्यों द्वारा देवागम' (पातमीमांसा) ३ स्वामिनधरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् । का पर निर्देश अतः यहाँ भी उनके पाठक भ्रममें नहीं। देवागमेन सर्वशा येनाद्यापि प्रदर्श्यते ॥ पर सकते । लोको पूर्वार्ध में प्रयुक स्वामी पदसे फौरन -पार्श्वनाथचरित 'देवागमके कर्ता समन्तभद्रका शालकरखेंगे।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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