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________________ १८२ अनेकान्त [ वर्ष ६ तपसे जो तापहारी किरणें त्रिकीर्ण होती है वे पाठकांके साहित्य-देवता हृदय मन्दिरमें प्रवेश कर उनकी समस्त कालिमाको क्षगामें श्रा माणिक्यचंद्र जैन, बी० ए० दूर कर उनके हवयोंको पूर्ण ज्योर्तिमय करती है। वयोवृद्ध तपस्वी पं. जुगलकिशोरजो मुख्तार जैनदर्शन भी जुगलकिशोरजी मुख्तार जैनममाजके जाज्वल्यमान और साहि.यके अनन्यसेवी है। आपने जै-धर्म और साहरस्त। वे महावीरके सेवक, अहिंसाके उपासक, मेरी त्यकी अपवं सेवा करके साहित्य जयनमें अपनी सत्रतामुखी प्रतिमाका पूर्ण परिचय दिया है । आपने बोन और श्रनुदर्शनके प्रगाढ़ विद्वान है। जो स्थान हिन्दी साहित्य में श्री सन्धान द्वाग नसाहित्यके अमूल्य मोनियंको ढूंढ निकाला गौरीशंकर हीराचंदजी श्राझाकाहे वही स्थान जैन साहित्य है। मख्तार माहब हिम्मत के धनी, दिलके मर्द, सत्यके में श्री जगलकिशोरजी मुखनारका है।शज हमारा सौभाग्य पजारी. न्यायके पोषक, यथार्थके प्रसारक सच्चे साहित्यिक है कि श्री मुरूनारजी हमारे बीच में है, हमारे साथ है और फकीर हैं। श्राप साहित्यलष्टा, मौलिक लेखक और कलाहमारे सामने हैं। कार हैं। आपकी कलममें जादू भरा हुश्रा है। खोज, शोष श्री जुगलकिशोजी मुख्तार एक मौन तपस्वीहै। और सम्पादन आपके जीवनका लक्ष्य है। वास्तविक जैन उनकी तपस्या में कई ताराछायी रातें श्रोझल हो जाती है संस्कृति और सभ्यताका प्रसार करना श्रापका ध्येय है। कई दिन, माह तथा वर्षकालके कगल गाल में समा जाते श्राप निष्पक्ष समालोचक, गम्भीर विचारक, सहृदय कवि है किन्तु उनका 'वीरके समान 'वीरवन' वीत-राग विरागता एवम् दार्शनिक विद्वान् है। आज भी कायम है। संसारमें आँधियां पाती है, भूचाल आपकी विचारधारा स्वतन्त्र है। श्रार वास्तविक एवम् होते हैं और प्रलयका नांडव नृत्य भी होता है किन्तु तरुणं वैज्ञानिक प्रमाणोंको ही सत्य मानते हैं। रूढीग्रस्त वातावतपस्वीस अचल श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार अटल आसन रणसे श्रापको घुणा है। आपका दृष्टिकोण विशाल और पर श्राज मी विराजमान हैं। उन्हें संसारके प्रलोभन वशी- उदार है। आपकी प्रात्मा उन्नत, उज्वल और निर्मल है। मत नहीं कर सकते क्योंकि उनकी अंतरात्मा परमात्मा ममाजके पति आपके हदयमें करुणाकी मन्दाकिनी सब महावीरसे समरस है। तरंगित रहती है। श्राप मामाजिक जीवनमे अन्धश्रद्धा, श्री मुख्तारजीकी तपस्यामें जैनदर्शनका सूक्ष्मातिसूक्ष्म श्राडम्बर और रूढ़ियाँको सदाके लिये दूर हटा देना विश्लेषण मिलता है। श्री मुख्तारजी जैनदर्शनके पूर्ण भक्त चाहते हैं। हैं। वे प्रथम दार्शीनक, नपस्वी है बादमें कवि, लेखक, मुख्नार साहब जैन समाजके ही नहीं, अपितु भारत के अन्यकार और समाज-सेवक । देदीप्यमान रत्न है। आपकी सेवा और त्याग, शान और विवेक, धुन और लगन, कर्तव्य और सत्यता वास्तवमें भी मुख्नारजीमें वैज्ञानिकका तय है। उनकी तपस्या प्रशंसनीय है। से प्राध्यात्मिक विज्ञानके तपोबलकी मूर्तिका परिचय मिलता इनका इनिहास काव्य, दर्शन और साहित्यक्षेत्र में है। यदि नोवल पुस्कार विजेता रमण' भारनके लिये अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। दूसरोंके निर्दिष्ट पथपर चलना गौरव है तो श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार भी भारतीयोंके लिए उन्हें नहीं भाता, उन्होंने अपनी सृजनात्मक कल्पनाद्वारा भूषणावह है। संक्षेपमें हम यही कहेंगे कि भी जुगल ही नवीन पथ निर्माण किया है और घोर विरोधमें भी श्राप किशोरजी मुख्तारकी तपस्या 'वीर' की तपस्यासे प्रभावित सत्यके मार्ग पर अडिग रहे हैं। ईश्वर करे कई 'नो तक पं. मुख्तारजी तपस्या वह समय अब अनिनिकट मारहा है। जब मुख्नार करते हैं। - साहबके कार्योका वास्तविक मूल्य प्राँका जायगा।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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