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________________ किरण १] आजका मेस्मेरिज्म और जैनधर्मका रत्नत्रय ५६ जैसे 'शक्तिमान' बन जायें और अन्य लोग स्वयं आप ही दशाओं में उनकी साधनामें बाधा पड़ती है, अतः के पास अपनी प्रार्थना लेकर आया करें"। उन्होंने आवश्यकता इस घातकी है कि योरूप और अमेरिका खुलामा किया। की तरह यहाँ भी इस विद्याका काफी प्रचार हो, "पर महाराज सुना है योगकी क्रियाएं तो बड़ी विद्वान लोग इसके विषयमें क्रियात्मक खोज करें कठिन हैं, हम जैसे गृहस्थ मनुष्य उनकी माधना कैमे और अपनी खोज आप लोगोंके सामने रखें, तभी कर सकते हैं? वे तो संसारत्यागी साधू-महात्माओंको हम समझ सकेंगे कि वास्तव में हमारे घरमें कितना ही शोभा देती हैं"। मेरी शंका थी। बड़ा खजामा था श्रीर उसे लटा कर आज हम अन्य "यह ठीक है भाई कि योगकी पूर्ण माधना बड़ी लोगोंके सामने हाथ फैला रहे हैं।" उनका कठिन है और वह किमी अच्छे गुरुक बिना हो भी समाधान था। नहीं सकती है, फिर भी उसके कुछ अंग इतने आमान "पर महागज मेस्मेरिज्मकी मूल आधार भित्ति हैं जो थोड़ा मा प्रयत्न करने पर छोटा बच्चा भी क्या है ?" मेरा प्रश्न था । आसानी से कर सकता है। उदाहरण के लिये आजका “मनकी एकाग्रता, इंद्रियोंकी इच्छाओंका निरोध मेस्मेरिज्म ही लेलीजिये, यह तो योगका एक आसान और श्रद्धा ज्ञान तथा चरित्र । खुलासा रूपमें यह कि अंग ही है, अन्तर केवल इतना है कि इसे योरूपके मन शरीरका राजा है। आवश्यकता इस बातकी है कि निवासीने अपने नामसे नवीन रूपमें जनताके सामने बह इतना बलवान हो कि सारा शरीर उसकी इच्छा रक्खा है। योरुप और अमेरिकामें साधारण लोग के अनुसार ही कार्य करे-जब २ इन्द्रियां इधर उधर इमको जानते हैं, मीग्यते हैं. और मंसारको अपने भागना चाहें तो मन अपनी एकाग्रतासे उन्हें वहीं अद्भुत करिश्मे दिखा कर आश्चर्यमें डाल देते हैं, बान्ध ले और भागने न दे। यह एक दम नहीं हो वहां इस विद्याके स्कूल हैं, सिखाने वाले हैं जो जनता मकता, इमके लिये साधनाकी आवश्यकता है और की मनोवृतिका लाभ उठा कर उससे पैसा और यश माधना होती है तब जब कि पहिले किसी वस्तु पर दोनों कमाते हैं। हमारे दुर्भाग्यसे भारतवर्ष में यह पूरा श्रद्धान हो-विश्वास हो, उसका पूर्ण ज्ञान हो विद्या अपढ़ और निम्न श्रेणीक लोगों के हाथमें पहुँच गई और उम ज्ञानका हम अपने कार्यों द्वारा उपयोग करें, हैजो विद्यासे केवल जननाको ठगनेका कार्य करते हैं, तभी हम सफलताकी मंजिल की ओर चढ़ना प्रारम्भ इसके नाम पर छोटे बच्चों स्त्रियों और लड़कियोंको कर देंगे"। उनका उत्तर था। बहका कर उनसे व्यभिचार करते हैं। अतः लोग सुनते ही मैं जैसे सोतेस जाग उठा । ओह ! यही अक्मर यही कहते सुने जाते हैं कि यह सब धोखा तो जैन धर्म है, यही जैन श्राचार्य चिल्ला २ कर हमें है और ऐसी कोई विद्या या तो हो नहीं सकती है कह रहे हैं, इसी पर तो जैन धर्म का मारा साहित्य और यदि है तो आज उसके जानने वाले नहीं हैं, पर ही खड़ा है। हमें भी तो जैन धर्मका यही उपदेश है वास्तवमें यह बात गलत है यह विद्या है और वास्तव कि जब तक सम्यकदर्शन, ज्ञान और चरित्र नहीं होगा में है तथा इसके जानने वाले भी काफी व्यक्ति मौजूद हमारी श्रात्मा ऊँचा नहीं उठ सकती-हम मोक्ष प्राप्त हैं, पर चूँकि उन लोगोंने यह विद्या अपनी आत्मिक नहीं कर सकते । ओह ! जब यह साधारणसे लोग उन्नति और आनन्दके लिये सीखी है, संसारिक लोगों जरा जरासे अंगोको जानते हुए केवल इन अकच के लाभके लिये नहीं तथा न ही अपना कोई निजी आदशों पर खड़े होनेके कारण इतने शक्तिशाली निकृष्टस्वार्थ साधने के लिये। इसीसे वे लोगन तो इस और लोकमें पूज्य हो जाते हैं तो वह तिल-तुप-मात्र का प्रदर्शन करते हैं और न किसीको यह प्रकट ही परिग्रहके त्यागी, गग-द्वेषस रहित जितेन्द्रिय जैन होने देते हैं कि हम इसे जानते हैं। क्यों कि दोनों आचार्य कितने शक्तिशाली होंगे और यदि उनके
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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