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________________ ३०८ अनेकान्त [वर्ष ६ समय तक रहा। पुनः दूसरे समयमें उसके उच्चगोत्र उदय 'गोउत्तमस्म देवा' सि उच्चागोयस सम्वे में माजाने पर मीचगोत्रकी उदीरणाका एक समय प्राप्त देवा उदीरगा । 'णराय' त्ति मणुयाण वि कोति उचाहोता है। तथा नीचगोत्रकी उदीरणाका उत्कृष्टकाल असं. गोयं उदीरति । 'वइणो' य त्ति जो वि पीजाति तो ज्यात पुगपरिवर्तन है। उचगोत्रकी उदीरणाका यती सो वि उपचागोयं उदीरेति । टीका जघन्यकाल एक समय है। जैसे किसीने उत्तर शरीरकी इसका भाव यह है कि सब देव उच्चगोत्रकी उदीरणा विक्रिया की और वहां एक समय रह कर मर गया तो करते हैं। मनुष्यों में कोई उच्चगोत्रकी उदीरणा करते हैं। उसके उचगोत्रकी वीरणाका एक समय काल पाया तथा जो नीच जातिसे प्राकर वती होता है वह भी उच्चजाता है। इसी प्रकार नीचगोत्रकी अपेक्षा भी एक समय गोत्रकी उदीरणा करता है। आनना चाहिये । उचगोत्रका उत्कृष्टकात सौ पृथक्श्व- सौभाग्यकी बात है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर परंसागर है। इससे भी यही निश्रित होता है कि एक भवर्म परामें कर्मविषयक साहित्य प्रायः समानरूपसे चला था गोत्रका परिवर्तन पाया जाता है रहा है। ऊपर जो कर्मप्रकृतिका उदाहरण उपस्थित किया 'उच्चाणीचागोदाणं जह० एगसमभो । उक्क० है उससे धवलाकी मान्यताकी ही पुष्टि होती है। धवला णोचागोदस्स सागरोवमसदपुधत्तं । उचागोदस्स पुदी का जो सबसे पहला उद्धरण हमने उपस्थित किया है उस रणंतरमुक्क० असंखे० पो० परियट्टा । से भी यही सिद्ध होता है कि एक नीचगोत्री जीव सकल संयमी हो जाता है। पर जिस समय उसके संयमकी प्रासि उच्चगोत्र और नीचगोत्रकी उदीरणाका अघन्य अन्तर होती है उस समय उसका गोत्र. बदल जाता है और नीच एक समय है। नीचगोत्रकी उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर सौ गोत्रके स्थानमें उच्चगोत्रका उदय होने लगता है। कर्मपृथक्त्वसागर और उबगोत्रकी उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर प्रकृतिके उक्त उद्धरणसे भी इसी बातकी पुष्टि होती है। असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। किसी एक उच्च गोत्र परिवर्तनके इतने उल्लेखों की रोशनी में अब हम गोत्रीके एक समय तक नीचमीत्रका उदय होकर पुनः युक्तिसं भी यह सिद्ध कर देना चाहते हैं कि एक पर्यायमें दूसरे समयमें उच्चगोत्रका उदय हो गया तो उसके उच्च गोत्र बदल जाता है। पर यह नियम केवल कर्मभूमिके गोत्रकी उदीरखाका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हुआ। मनुष्यों में ही लागू होता है, अन्यके नहीं। अन्य जीवोंके यही बात नीच गोत्रके सम्बन्धमें भी समझना चाहिये। अपनी अपनो गतिक अनुसार नीधगोत्र और उच्चगोत्रका इससे भी यही निश्रित होता है कि एक भवमें गोत्र उदय निश्चित है। केवल कर्मभूमिके मनुष्य ही ऐसे हैं जहां परिवर्तन होता है। यहाँ जघन्य और उत्कृष्टकॉल या विकल्पसे दोनों गोत्रोंका उदसम्भव है। इसका भी अन्तर ही कहा? मध्यमकान या अन्तर दो समयसे लेकर कारण है और वह यह कि जिस प्रकार अन्य गतियों में या एक समय कम उत्कृष्टकाल या अन्तर तक मध्यके जिसने भोगभूमिके मनुष्यों में उनकी वृत्ति निश्चित है उसमें कभी समय हो उतने विकल्परूप होता है। इससे यह भी भी बदल नहीं होती। कर्मभूमिके मनुष्योंकी यह बात निश्चित हो जाता है कि जिसने एक पर्याय में गोत्रपरिवर्तन नहीं। ये परिस्थितिके अनुसार अपनी वृत्ति बदलते रहते किया उसे पुन: अपने पूर्व गोत्र पर मानेका उस पर्याय हैं और उसके अनुसार उनके नीच-उप-भेदगत अनेक सम्भव है मौका न मिले या पूर्व संस्कारोंके जोर मारने प्रकारके परिणाम भी होते रहते हैं। यह दूसरी बात है कि पर वह पुनः अपनी पहलेकी स्थिति में पहुंच जाय । सामाजिक व्यवस्थाके अनुसार हम व्यक्तिगत परिणामोंकी इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परामें भी गोत्र-परिवर्तनका ओर ध्यान न दें। पर गोत्रका जहां तक व्यक्तिगत सम्बन्ध उल्लेख मिलता है। यथा है वहां तक व्यक्तिकी गोत्रकानुसार होने वाली विविध 'गोउत्तमस्स देवाणरा य वइणो चउराहमियरामि। दशानोंको कौन रोक सकता है? यही सबब है कि इन -कर्मप्रकृति १७ । परिणामों के प्राचारसे दोगोत्रोंको शह भेदों में बांट दिया -
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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