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________________ किरण ४] पण्डिता चन्दाबाई १५१ और इंगर ही जाना है--यात्रा साधनोंका परिवर्तन विवाह हुमा, उनके निकट इसका अर्थ है, विवाह यात्राके लक्ष्यका परिवर्तन नहीं। संस्कार हुमा और १२ वर्षकी उनमें उनका सबकुछ चिन ज्ञानके पालोककी इस किरहमालामें स्मानकर नारी जैसे गया-वे ठीक डीक जान भीन पाईऔर वैषम्यकी ज्वाला जाग उठी, जीउठी। मिराशा माशाके रूप में बदल गई, वेदना में उनका सर्वस्व भस्म होगया। २ वर्षकी एक सुकुमारवाधिका, जो दुनियाको देखती प्रेममें अम्ताहित, स्तब्धता स्फुरणाम, सामने स्पष्ट साक्य, है, पर समझ नहीं पाती। जोसमझती है, अपने व्याकरणसे, में गति, मनमें उमंग, जीवन में उत्साह । मस्तिक अपने कोशसे, अपने ही बचणसे। इतना विशाल विश्व सद्भावनाघोंसे पूर्ण, हदय प्रेमसे। कहीं किसीका कार देखा और पैर चले, कहीं क्सिीका कष्ट देम्बा और भुजाएं उठी, और हकने यात्रायहां भाग्यका अस्तित्व है. योग्य अभिभावक मिले.पथ बना । वैच्याच की श्रद्धाका सम्बन लियेकी कहीं किसीका कष्ट देखा और मस्तिष्क चिन्तित-विश्वभरके जीवन में प्रोतप्रोत-पत्नी अब वह किसीकी नहीं, माता सारे जैनस्वकी साधनाने उन्हें प्रगति दी। श्रद्धा और साधना विश्वकी, सबके लिये विश्वसनीय, सबके लिये बन्दनीय । दोनों दूर तक साथ साथ चली । श्रद्धा समर्पणमयी है यह भारी नारीत्वका चरम विकास है, उसके सतीत्व साधना ग्रहणशील, श्रद्धा साधनामें लीन होगई। की परम गति, उसकी गतिकी अन्तिम सीमा है, जहां श्रद्धामयी साधना मूक भी है, मुखरित भी मुखरित साधना, जिसमें अन्तर और वास मिलकर चलाते हैं-पुर, महावीर वह अपना लक्ष्य पाती है, यही उसके जीवनका गंगा और गाम्धीकी साधना, जिसमें प्रारम चिन्तन भी है जगमागर है, जहां वह भगवान सागरमें लीन हो, परम सुख का लाभ लेती है। निर्माणमयी. निर्वाणमयी नारीकीम कल्याण भीयही पथ चन्दाबाईजीने गुना। विगत वर्षों में उन्हों ने कोमात्मसाधनाकीमतरमे सपनपा, वह उनकीधाकृतिमें, नित नूतन मूर्तिको लाख लाख प्रणाम। जीवनके अणु अणुमें व्याप्त है। प्रत्या, जिसके अनुसन्धान भारतीय संस्कृतिके सबल साधक गान्धीजीने मारीकी में श्रम अभीष्ट नहीं भर इन्ही बाम उन्होंने बोक. इसी शक्तिको, वैधन्यके इसी दिव्य रूपको 'हिन्दूधर्म का कल्याणकी जो साधनाकी, उसथा मूर्तस्पधाराका जैनवाला भंगार कहा है। अंगारकी इसी दीप्तिसे प्रोग्यसमाज एक विश्वाम' है. देशकी पक प्रमुखसेवा-संस्थापास्मसाधनामें नारी हमारे मध्यमें है-पशिडता चन्दा बाई! सन्यासी,लोकव्यवहारमें सांसारिक, विश्व और विश्वात्माका समन्वय ही इस महिमामयी नारीकी जीवन-साधना है। पण्डिता चन्ता बाई-एक वैष्णव परिवारमें जन्मी, जीवनमें धार्मिक, व्यवहारमें देशसेवक, सिखातों में अतीत राधाकृष्णकी रसमयी भक्तिधाराके वातावरण में पली। माकी की मूलमें, प्रगतिम नवयुगकी काया, जिसकी एक मुट्ठी में लोनियोंमे उन्हें अधाका उपहार मिला, पिताके प्यारमें भूत, दूसरीमें भविष्य और वर्तमान जिसके जीवनी-मासमें उन्होंने कर्मठताका दान पाया और ११ वर्षकी उनमें एक व्याप्त, यही परिखता चन्दाबाई । युगका सन्देश वहन सम्पन्न जैन परिवारमें उनका विवाह हुमा। करती साधनामयी इस नारीको भी शत शत प्रणाम ! onsoornstawral "असत्यके भयसे अपने अन्तरका द्वारदेश अवरुद्ध कर मैं बैठ गया। बाहरसे सत्यने पुकारा बार बन्द है, मैं भीतर कैसे आऊं?" -श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर Monocom
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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