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________________ विरोधमें भी निर्विरोध पण्डितजीमे मेरा परिचय (ले-श्री रवीन्द्रनाथ जैन न्यायतीर्थ, शास्त्री, रोहतक) श्री एम. गोबिन्द पाई, मंजेश्वरम् (मद्रास) क्योंकि जब तब किसी वस्तुकी ठीक २ आलो श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारके साथ मेरा चना न की जाय तब तक वह श्रद्धालु लोगोंके सिवाय परिचय पहले पहल तब हुवा था, जब वे कुछ समय अन्यके द्वारा आदरणीय नहीं होती। जैन समाजमें के लिये गुजरात पुगतत्व मन्दिर अहमदाबाद में ठहरे कि प्रभावी हुए थे । मैं भी उन दिनों यात्राके समय प्राचार्य आशाधरजी सरीखे प्रकांड पंडितोंने भी जहाँ मूल मल- श्री काला कालेलकरका अतिथि था । यह सितम्बर गुणोंके मतभेदको खुल कर प्रकट नहीं किया, किन्तु १९२८ की बात है। नैगम नय एवंभूत नय आदिके द्वारा समन्वय करनेकी अपने पहले ही परिचयमें उन्होंने मुझे अपनी ही कोशिश की वहाँ पंडित जुगलकिशोरजीने ही सधे ओर आकर्षित कर लिया और मुझपर उनके साहिप्रथम निर्भीकताके साथ उन्हें आचार्योंका शामनभेद त्यिक विचारोंकी गहरी छाप पड़ी । बहुतसे लोगोंका बताया। सच तो यह है कि मुख्तार साहबने बालो नाम हम दूरसे सुनते हैं, पर मिलनेपर भारी निराशा चना कार्यके लिये अपना जीवन ही अर्पण कर दिया। होती है, परन्तु उनस मिल कर मुझपर यह प्रभाव समाजसे सांकांक्ष हो उसकी आलोचना नहीं की जा सामानकोजा पड़ा कि वे महान साहित्यिक होनेके साथ महान पुरुष सकती थी अतः मुख्तार साहब अपने सहारे खड़े हये। भी है। इस प्रथमपरिचयक बाद उनके दर्शन करनेका मुझे याद है कि एक बार मुख्तार साहब रोहतक तो फिर अबमर नहीं मिला, पर 'अनेकान्त' में उनके आये। अष्ट द्रव्यके साथ आपने शारीरिक क्रिया लेख मैं बगबर पढ़ता रहता हूँ और इससे उनकी (नमस्कारादि) को भी द्रव्य-पूजा बताया। यह पूजक विद्वत्ताके प्रति मेग मान बढ़ता ही गया है । उनके की इच्छा पर है कि वह किसी तरह द्रव्य-पूजा कर व्यक्तित्वमें विनय और विद्वत्ताका बहुत सुन्दर समकर सकता है। मुख्तार महोदयका कथन शास्त्रीय न्वय हुवा है। आधार पर था, फिर भी श्रद्धालु भक्तोंके परम्परागत संस्कारके वह विरुद्ध होनेसे उन्हें असह्य हुआ। बस पालनका प्रश्न फिर क्या था, आगे पीछे मुख्तारजी पर कटु वाग्वाणों (श्री राजेन्द्रकुमारजी दहली) की वर्षा की गई और उन्हें सभी कुछ कहा गया । मुख्तार साहबके प्रेमियोंको वह सुन कर क्रोध आया, एकबार पण्डितजी नजीबाबाद आये और कुछ मित्रों पर मैने देखा कि वे ज्यों के त्यों शान्त रहे और यह ने उनकी संस्थाकी सहायताके वचन दिये। उनसे और सब निन्दा उनकी प्रसन्नताका सागर न सुखा सकी। धनतो धीरे २ प्राप्त हो गया, पर एक मित्रके १००)रह यह सम्मान समारोह उनकी उस हंसीकी विजय- गये । पण्डितजीके अनेक पत्रोंका भी उन्होंने उत्तर नहीं घोषणा है। वे कहा करते हैं साक्टर जब आपरेशन दिया इस पर पण्डितजीने उन्हें एक रजिस्टर्ड नोटिम करता है, तो रोगीसे पुरस्कार पाता है, पर इस पुर- देदिया और मुझे कहा कि तुम्हारे सामने उसने वचन दिया स्कारसे पहले गालियां तो निश्चय ही, पर मौका लग था इस लिये तुम गवाह रहना । जब मैंने कहा कि जाने जाये, तो २-४ लातोंके लिये भी उसे तैयार रहना भी दीजिये, तो बोले यह मेरे लिये...)का प्रश्न नहीं चाहिये। यही दशा सुधारककी है। उनकी यह बात है, यह तो एक मित्रको उसके कर्तब्यकी याद दिलाना है। युवक समाज सुधारकों के लिये श्रादशे वाक्य है। बादमें शायद मामला यों ही निमट गया। ........
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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